श्रीगंगानगर-माँ कहा करती थी, बैठना भाइयों का चाहे बैर क्यूँ ना हो,छाया
पेड़ की चाहे कैर क्यूँ ना हो। कौन जाने
माँ का यह अपना अनुभव था या उन्होने अपने किसी बुजुर्ग से यह बात सुनी थी। जब यह
बात बनी तब कई कई भाई हुआ करते थे।उनमें
खूब बनती भी होगी। इतनी गहरी बात कोई यूं ही तो नहीं बनती। तब किस को पता था कि कभी ऐसा वक्त भी आएगा जब भाइयों
का साथ बैठना तो क्या उनमें आपसी
संवाद भी नहीं रहेगा। उससे भी आगे, ऐसा समय भी
देखना पड़ेगा जब इस गहरी,सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण बात पर ही प्रश्न चिन्ह लग
जाएगा। क्योंकि भाई हुआ ही नहीं करेगा। एक लड़का एक लड़की,बस। तो!
बात बहुत
पुरानी है। तस्वीर काफी बदल चुकी है। इस बदलाव
की स्पीड भी काफी है। रिश्तों की गरिमा खंड खंड हो रही है। रिश्तों में स्नेह का
रस कम होता दिखता है। मर्यादा तो रिश्तों में अब रही ही कहां है। खून के रिश्ते
पानी पानी होने लगे हैं। अपवाद की बात ना करें तो यह किसी एक की नहीं घर घर की
कहानी है। कहीं थोड़ा कम कहीं अधिक। व्यक्तिवादी सोच ने दिलो दिमाग पर इस कदर कब्जा
जमा लिया कि किसी को अपने अलावा कुछ दिखता ही नहीं। रिश्तों में टंटे उस समय भी
होते होंगे जब उक्त बात बनी। परंतु तब उन टंटों को सुलझाने के लिए रिश्तेदारी में रिश्तों की गरमाहट को जानने और
महसूस करने वाले व्यक्ति होते थे। जिनकी परिवारों में मान्यता थी। उनकी बात को
मोड़ना मुश्किल होता था। व्यक्ति तो अब भी हैं। परंतु वे टंटे मिटाने की बजाए बढ़ा और देते
हैं। एक दूसरे के सामने एक की दो कर। रिश्तों
में ऐसी दरार करेंगे की दीवार बन जाती है दोनों के बीच। किसी को दीवार के उस पार
क्या हो रहा है ना दिखाई देता है ना सुनाई। फिर कोई किसी अपने को मनाने की पहल भी
क्यों करने लगा! “उसके
बिना क्या काम नहीं चलता।“ इस
प्रकार के बोल सभी प्रकार की संभावनाओं पर विराम और लगा देते हैं। सुना करते थे कि खुशी-गमी
में रूठे
हुए परिजन मानते और मनाए जाते हैं। पहले खुशी के मौके पर आने वाले रिश्तेदार सबसे
पहले यही काम करते थे। अब तो किसी कौने में खड़े हो कर बात तो बना लेंगे लेकिन
बिखरे घर को एक करने की कोशिश नहीं करेंगे। इसकी वजह रिश्तों में आया खोखलापन भी
है। समाज में किसी का किसी के बिना काम नहीं चलता। सबका साथ जरूरी है। किसी की
कहीं जरूरत है किसी और की किसी दूसरी जगह। कोई ये साबित करना चाहे कि उसका तो काम
अकेले ही चल जाएगा तो कोई क्या करे? काम चल भी जाता है लेकिन मजा नहीं आता।
मन में टीस रहती है। अंदर से मन उदास होता
है। ऊपर बनावटी हंसी। क्योंकि सब जानते हैं कि मजा तो सब
के साथ ही आता है।
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