Tuesday 23 December, 2014

मिट्टी मेँ दबा देना चाहिए ऐसे धर्म को....



श्रीगंगानगर-वह धर्म व्यर्थ है जो पति पत्नी के रिश्तों को असामान्य बना उसे तोड़ने की स्थिति मेँ ले आवे। उस धर्म को भी मिट्टी मेँ दबा देना चाहिए जो गृहस्थ आश्रम की जड़ें खोखली करने का काम करता है। वह धर्म भी किसी काम का नहीं जो हमेशा खिलखिलाते रहने वाले परिवार मेँ कलह का कारण बने। विवाद पैदा करे। संवेदनशील रिश्तों मेँ कड़वाहट घोल दे। पर धर्म तो ऐसा कुछ नहीं करता, कहीं नहीं करता। यह सब जो करता है वह धर्म की आड़ मेँ व्यक्ति का अहम, दंभ, अहंकार ही करता और करवाता होगा । कुंठा होती है किसी व्यक्ति की। उसका अवसाद भी हो सकता है या किसी अपने की उपेक्षा भी । फिर यही धर्म के रूप मेँ पग पग पर बाधा बन सामने आ खड़ा होता है। इंसान मन, कर्म, वचन से सात्विक रहने की बात करता है। रिश्तों की अहमियत भी समझता है ठीक से। उसकी मर्यादा को जानता है और मानता है। इसमें कोई शक नहीं कि धर्म इंद्रियों पर संयम रखने की बात करता है। यही धर्म गृहस्थ आश्रम को सबसे महत्वपूर्ण आश्रम भी मानता है। फिर भी गड़बड़ हो जाती है। दंपती मेँ से एक भी 24 घंटे धर्म मेँ लगा रहेगा, सत्संग की बात करेगा, अपने आप को भजन कीर्तन मेँ लीन रखेगा तो ये निश्चित है कि उनके दाम्पत्य जीवन मेँ रस का अभाव हो जाएगा । विचारों मेँ भिन्नता शुरू हो जाएगी। विवाद होगा। संभव है धर्म, सत्संग, भजन, कीर्तन मेँ मस्त रहने वाले व्यक्ति का मन झूमता रहे। उसे उमंग और आनंद का अनुभव हो, लेकिन दूसरा साथी, परिवार के बाकी सदस्य अपनी भावनाओं को आहत समझ कुंठित होने लगेंगे। ऐसे ही एक घर हुआ। उधर वैल क्वालिफाइड पति-पत्नी अलग अलग कमरों मेँ सोते। वह भी उस उम्र मेँ जब दोनों को एक दूसरे के सहारे, साथ की सबसे अधिक जरूरत होती है। परिणाम, एक इतना कुंठित हुआ कि उसका चेहरे का रंग बदरंग हो गया। फिर अधिक दिन जी भी नहीं सका। पता नहीं ये कौनसा धर्म,सत्संग था जो पति पत्नी को उनके रिश्ते निभाने से रोकता रहा ! ये कोई पहला और अंतिम उदाहरण नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि हमारे जीवन मेँ धर्म, सत्संग, कीर्तन हो, लेकिन ये सब इतने भी नहीं होने चाहिए कि पति-पत्नी एक बिस्तर पर एक दूसरे से मुंह फेर कर सोने लगे। एक दूसरे की भावना,पसंद को अपने धर्म पर कुर्बान कर दें या फिर भोग को वासना की विषय वस्तु मान उसकी निंदा शुरू कर दें । गृहस्थ आश्रम मेँ वासना भी होती है और तृष्णा भी। संतोष भी है तो कामना भी। केवल एक की प्रधानता से गृहस्थी नहीं चल सकती। वह काल खंड और था जब इतनी उम्र मेँ गृहस्थ आश्रम, उतनी उम्र मेँ वाणप्रस्थ और उसके बाद सन्यास आश्रम का निर्वहन होता था । तब की परिस्थितियां , खान-पान, रहन सहन कुछ और था अब कुछ अलग। तो फिर आज की परिस्थिति मेँ कैसे इनका विभाजन किया जा सकता है। कौन करेगा वाणप्रस्थ का पालन? कौन निकलेगा सन्यास के पथ पर? कौन जाएगा वन को? असल मेँ धर्म तो मन, कर्म और वचन मेँ होता है। वह खंडन, विखंडन का नहीं संयोग और योग का पक्षधर है। वह विवाद नहीं निर्विवाद करता है। धर्म को धारण करने वाले के अंदर तो लगाव होना चाहिए किसी के प्रति अलगाव नहीं । ज़िम्मेदारी से भागना , अपनों से दूर रहना, उनकी भावनाओं को उचित महत्व ना देना धर्म, सत्संग, कीर्तन नहीं कुछ और ही होता है। यह क्या होता है वही जाने जिसमें यह होता है।

Monday 22 December, 2014

विशेष फाइल:मेरी मृत्यु के बाद काम आएगी



श्रीगंगानगर-मृत्यु एक मात्र सत्य है। ये सब जानते हैं। स्वीकार भी कर लेते हैं बहुत से। परंतु इस सच को अंगीकार कर उसके स्वागत की तैयारी विरले ही करते हैं। उस सच का इंतजार करने का हौसला किसी किसी मेँ होता है जिसका नाम मृत्यु है। मृत्यु से पूर्व की मैनेजमेंट भी कोई कोई ही कर पाता है। हालांकि किसी को नहीं पता कि कौन इस जग से कब प्रस्थान करेगा। बुजुर्ग का बुलावा पहले आएगा या नौजवान को मौत अपने साथ लेकर चली जाएगी। संभव है गंभीर रोगी खाट पर पड़ा रहे और चलता फिरता व्यति चलता बने। इसके बावजूद कभी कभी कोई ऐसा हो जाता है जो बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर देता है। ऐसा ही हुआ है। इस सच का सामना करने के लिए एक व्यक्ति ने सालों पहले अपने आप को मानसिक रूप से तैयार कर लिया,जिसे मृत्यु कहा जाता है। इस व्यक्ति ने 25 जनवरी 2003 को एक विशेष फाइल बनाई। उस पर लिखा,मेरी मृत्यु के बाद काम आएगी। व्यक्ति लाईनदार पन्ने पर इन शब्दों से अपनी बात शुरू करता है,मृत्यु सत्य है। जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी अवश्य होती है। मेरी आयु 58 साल 6 माह और 22 दिन हो चुकी है। मेरा भी देहांत होगा। मरने से पूर्व परिवार को मार्ग दर्शन देना चाहता हूँ। मार्ग दर्शन के रूप मेँ इस व्यक्ति ने वह सब कुछ डिटेल मेँ लिखा जो परिजनों को करवाना होगा। मृत्यु प्रमाण पत्र कैसे बनाना है? क्या लिखवाना है? बैंक खाते के लिए क्या कैसे डाक्यूमेंट लगाने होंगे? गज़टेड ऑफिसर से हस्ताक्षर के लिए बाकायदा एक व्यक्ति का नाम लिख उसे बुला लेने के निर्देश बच्चों के लिए इस पन्ने पर है।जरूरी निर्देश और मार्ग दर्शन लाल स्याही से अंकित किए गए हैं। यहाँ तक कि पत्नी के नाम पेंशन करवाने मेँ बच्चों को परेशानी ना हो, भरा हुआ एक डमी फार्म भी फाइल मेँ रखा हुआ है। इस व्यक्ति ने बच्चों के लिए लिखा, बेईमानी से पैसा नहीं कमाना। कोई लेनदार हो तो उसे हाथ जोड़ कर देना। अगर पैसा हाथ मेँ हो तो कमजोर रिश्तेदार की मदद जरूर करना। और भी कई बात इस फाइल मेँ हैं। ऐसा नहीं कि फाइल तैयार करते ही मौत उनको लेने आ गई।यह सब लिखने के बाद भी व्यक्ति ने 11 साल 9 माह सुख पूर्वक बिताए। इतने समय तक उस सत्य का इंतजार किया जिसे मौत,मृत्यु के नाम से जाना जाता है। जब यह बात कोई नहीं जानता कि कौन पहले जाएगा उन्होने अपने प्रस्थान की तैयारी कर ली। इस बात का प्रबंध भी कर लिए कि उनके प्रस्थान के बाद बच्चों को कोई परेशानी ना हो। ऐसा करने वाले व्यक्ति का नाम था सुभाष अनेजा। रिटायर्ड आरईएस। जिनका पांच दिन पहले 11 अक्टूबर को निधन हो गया था। शोक ग्रस्त परिजन फाइल को पढ़ते हैं।

Monday 18 August, 2014

कृष्ण की ड्रेस पहनने से कोई कृष्ण नहीं बनता

श्रीगंगानगर- केवल कृष्ण का रूप धरने मात्र से कोई कृष्ण बन सकता है? सवाल ही पैदा नहीं हो सकता। कृष्ण बन जाना। कृष्ण हो जाना,बहुत बड़ी और दुर्लभ बात है।ऐसा युगों युगों में कभी होता है। ठीक है, सच्ची का कृष्ण बनना असंभव है,लेकिन यह कोशिश तो हो ही सकती है कि कृष्ण बनने और बनाने वाले कृष्ण को समझें। अपने आचरण में कम से कम एक दो प्रतिशत तो कृष्ण को उतारें। और नहीं तो केवल प्रेम को ही ले आएं,यही बहुत है। क्योंकि जहां प्रेम हैं वहां कोई झंझट,संकट होता ही नहीं। इसमें किसी की जेब से कुछ नहीं लगता । अभिभावक अपने बच्चों को कृष्ण के परिधान पहनाने तक की सीमित ना रहें। वे बच्चे में कृष्ण से संबन्धित जानकारी दें। उसकी कथा,कहानियां बच्चों को बताएं। क्योंकि कृष्ण की तो हर उम्र में कोई ना कोई कथा है। उसकी हर लीला प्रेरणा है। कृष्ण ने  हर कदम धर्म की स्थापना के लिए बढ़ाया। कौनसे कष्ट थे जो उसने नहीं सहे। बचपन से ही विपत्तियों का सामना करना कृष्ण ने शुरू कर दिया था। कृष्ण कर्म की प्रेरणा देते हैं। प्रेम का संदेश देते हैं। अपनों को भरोसा देते हैं।अन्याय बर्दाश्त नहीं करते। जुल्म का सामना करने से नहीं डरते।परिस्थिति कैसी भी हो अपने लक्ष्य को नहीं भूलते। सखा सुदामा जैसा निर्धन हो या अर्जुन जैसा राजकुमार,कृष्ण भेद नहीं करते। जो सुदामा को चाहिए था वह सुदामा दिया और जो अर्जुन को चाहिए था वह उसे। वे कूटनीति के ज्ञाता है। धर्म के अधिष्ठाता हैं। भाव को महत्व देते हैं। ऐसे कृष्ण का थोड़ा सा भी आचरण किसी बच्चे में आ गया तो समझो,हो गया समाज निहाल। इसमें कोई शक नहीं कि आज के युग में कृष्ण बन बन जाना असंभव है। लेकिन इसके बावजूद अभिभावकों और स्कूलों को केवल इतनी कोशिश तो करनी ही चाहिए कि कृष्ण बनने वाला बच्चा बिगड़े तो ना। मात्र प्रतियोगिता जीतने के लिए ही कृष्ण बनना या बनाना कोई महत्व नहीं रखता। नगर में कृष्ण के प्रति श्रद्धा,विश्वास, लगाव बढ़ा है या जन्माष्टमी पर बाजारवाद का असर है,मालूम नहीं,लेकिन ये सच है कि लोगों में अपने बच्चों में कृष्ण बनाने की होड़ लगी रहती है। शिशु से लेकर किशोर अवस्था तक तक के बच्चे हर आयोजन में कृष्ण बने नजर आते हैं। जन्माष्टमी के निकट सामाजिक,धार्मिक संगठन ही नहीं स्कूलों में भी कृष्ण बनाओ प्रतोयोगिताओं का आयोजन होने लगा है। परंतु इनकी सार्थकता तभी होगी जब अभिभावक और स्कूल बच्चों में अभी से कृष्ण का आचरण लाने के प्रयास करें।

Tuesday 29 July, 2014


गुण्डे  खूब मजबूत हुए हैं
निर्बल शासन तंत्र,
बचने की कोई राह नहीं है
जप लो  कुछ भी मन्त्र.
अफसर सारे मौज में भैया
नहीं नगर का ज्ञान,
कोई लुटे चाहे कोई पिटे जी
उनको क्या श्रीमान.
कुछ भी कर लो इस नगर में
प्रशासन ना रोकेगा,
नंगे घूमो बीच सड़क में
तुझे कोई नहीं टोकेगा.
मालिक साम-दाम-दंड-भेद के
सबके खूब हैं ठाठ,
शराफत दर दर भटक रही है
कोई ना सुनता बात.
गंगा सिंह की पावन धरा को
जाने, किसकी नजर लगी है,
अमन चैन सब हवा हो गया
चारों और बदी है. 

Saturday 14 June, 2014

समय पंख लगा उड़ेगा और नाम भूल जाएगा


श्रीगंगानगर-धरती से प्रस्थान करने के बाद भी उसका नाम उसके गांव,शहर,देश में जिन्दा रहे. इसके लिए इंसान अनेक जतन करता है.सद कर्म में लगता है. . साधन हो तो धर्मशाला,मंदिर,स्कूल जैसी संस्थाएं बना समाज को अर्पित करता है. जैसा जिसका सामर्थ्य,सोच वह उसके अनुरूप कदम उठाता है. पीढ़ियों तक उनका नाम अमर रहता है. जमाना बदल रहा है. अनेक ऐसे हैं जिनके नाम रहेंगे पीढ़ियों तक तो बहुत सारे ऐसे भी जिनके नाम खुद उनके पुत्रों की वजह से मिट जाएगानहीं जी, पुत्र कुपात्र नहीं है. सुपात्र होने के बावजूद ऐसा होगा. कोई ईलाज नहीं है. सोच बदल गई जनाब. चाव से बेटा जना.लाड से पाला. उम्मीदों से बढ़ा किया. सपने देखे और दिखाए. समय इतनी जल्दी बीता कि पता ही नहीं चला कि कब पढाई पूरी हुई और कब बेटा विदेश में नौकरी जा अलग.घर परिवार में आनंद,उत्साह,उमंग की कोई कमी नहीं. हो भी कैसे बेटी की शादी बढ़िया घर में हुई और बेटा विदेश में नौकरी करता है. समय तो जैसे भागने लगा. माँ-बाप भी विदेश हो आए. बेटे के लिए बहु भी विदेश में ही मिल गई. बेटा विदेश में रहता है तो बहु इधर क्या करती! समय पंख लगा उड़ने लगा. दादा -दादी बनने के सपने आने लगे. पोत-पोती की तोतली बातें उनके बिना ही मन सोच कर खुश होने लगा.समय क्यों रुकने लगा. खबर मिली बहु उम्मीद से है. माँ ने फोन,फेसबुक के माध्यम से निर्देश,आदेश देने शुरू कर दिए. ये करना ये नहीं करना. समय तो भाग ही रहा था. जापे के समय बेटे ने माता-पिता दोनों को फिर विदेश बुला लिया.पोता हुआ तो ख़ुशी का ठिकाना ना रहा. तीन चार महीने रहे दोनों. जब पोता बड़ा हो गया तो उधर उनके लिए कोई काम नहीं था. अपने देश आ गए माँ-बाप. खुश विदेश घूम ली. पोता खिला लिया गोद में. वह पोता जो विदेश में पैदा हुआ.वहीं का होकर रहेगा. जिसे इधर देश के घर में पैदा किया वही इधर का नहीं हुआ तो वह कैसे संभव है जो विदेश का है. वह तो उधर का नागरिक है. जब से आए हैं तब से दोनों विदेश के गीत गाते हैं. पोते की बात करते हैं. बेटा ये. बहु वो. पोता के तो कहने ही क्या. गली,मोहल्ले रिश्तेदारों में बल्ले बल्ले कर दी बेटे बहु की. पर अंदर सन्नाटा. समय जैसे ठहर गया अब. ना आंगन में पोते की किलकारियां ना बहु की पायल की छम छम. बस दो बुढा चुके मियां बीवी.समय पास नहीं होता. उम्र बढ़ी तो दर्द बढ़ने लगा.रोएं भी तो किसके आगे! दर्द सुनाएं भी तो किसे! उनको जिनको चटकारे लेकर विदेश की बातें सुना चुके. बहु बेटे की दरिया दिली के किस्से बता चुके. उनको जिनको पोते की सूरत अंग्रेजों जैसी बता कर ख़ुशी प्रकट की थी. वो जुबां दर्द का बयां कैसे करे जिसने विदेश के कसीदे पढ़ें हों. मन के दर्द का तो ईलाज भी नहीं कोई. मन की बीमारी कैसे कटे! यह तो प्राणों के साथ ही जाएगी.प्राणों के साथ ही मिट जाएगा उनका नाम. कोई नहीं होगा उनका नाम लेने वाला. किया कराया सब मिट्टी. अब जब सोच यही है तो नाम रहे भी कैसे. एक बेटा ,एक बेटी. बेटी ससुराल है. इधर आए कैसे.जिन बेटे पोतों से नाम आगे चलते हैं वे हैं नहीं इधर. बस काम ख़त्म. एक दो पीढ़ी बाद कौन जानेगा कि कोई था जिसका बेटा विदेश में था. उसका पोते की सूरत अंग्रेजों जैसी थी.

Friday 2 May, 2014

मोहब्बत तो कभी मरने की बात नहीं करती



श्रीगंगानगर-किस्सा फेसबुक से. ढाई दशक बाद एक व्यक्ति को महिला का सन्देश मिला, आई लव यू.व्यक्ति हैरान ! महिला ने बताया कि वो तो उससे तभी से मोहब्बत करती है जब शादी नहीं हुई थी. बन्दे को क्या पता. न कभी मिले . ना कभी जिक्र ही आया. फिर अब अचानक,ढाई दशक बाद, जब दोनों के बच्चों तक की शादी हो चुकी है.इक तरफ़ा मोहब्बत चलती रही,पलती रही.है ना मोहब्बत का अनूठा अंदाज. दूसरा,. दोनों की कास्ट अलग. मोहब्बत बे हिसाब. परिवार राजी नहीं. कोशिश की.शादी नहीं हो सकी. अलग अलग हो गए. तीस सालों में एक दो बार जब कभी मिले वैसी ही आत्मीयता वही मोहब्बत. तीसरा, लड़का सवर्ण ,लड़की दूसरी कास्ट की. संयोग ऐसा हुआ कि दोनों परिवारों को शादी करनी पड़ी. लड़की ने अपने आप को उस परिवार में ऐसा ढाला कि क्या कहने. किसी को कोई शिकवा शिकायत नहीं. चौथा,लड़का अपने इधर का. लड़की साउथ की. लड़का शानदार पोस्ट पर. परिवार उस लड़की से शादी करने को राजी नहीं. लेकिन लड़का-लड़की ने शादी कर ली. धीरे धीरे परिवार वालों ने भी उसे बहु के रूप में स्वीकार कर लिया. बहु जब भी पति के साथ छुट्टियों में  इधर आती है ,वह अपने संस्कार,काम और बोल चाल से ससुराल वालों का दिल जीतने की कोशिश करती है. ये किस्से कहानी नहीं हकीकत हैं.सब के सब जिन्दा और खुश हैं अपने अपने घर. परन्तु आजकल का तो प्रेम हो ही बड़ा अनोखा गया. इसमें मरने मारने की बात  पता नहीं कहां से आ गई. आजकल कभी प्रेमी-प्रेमिका के एक साथ मरने की घटना होती है तो कभी प्रेमी द्वारा प्रेमिका को मार देनी की. बड़ा अजीब है उनका प्रेम! साथ मरने का ये मतलब नहीं कि वे मरने के बाद साथ रहेंगे. ये फ़िल्मी डायलॉग है कि नीचे मरेंगे तो ऊपर मिलेंगे. दुनिया ने हमें इधर नहीं मिलने दिया,मरकर उधर मिलेंगे,आदि आदि.इस धरती पर मिलन उसी का होता है जो जिन्दा है. मरने के बाद की तथाकथित दुनिया किसने देखी. जो दुनिया देखी नहीं उसमें मिलने के लिए उस दुनिया से चले जाना जिधर मिलने की संभावना रहती है, कौनसी मोहब्बत हुई. ये तो मोहब्बत नहीं कोई आकर्षण था. मोहब्बत में सराबोर नहीं थे,शारीरिक आकर्षण में डूबे थे. जिन्दा रहोगे तो मिलने की आस रहेगी.मरने के बाद तो कुछ भी इन्हीं. मरने वाले बता नहीं सकते कि लो देखो, हम मर कर  मिल गए और सुखी हैं. भावुकता के अतिरेक में मर तो गए लेकिन उसके बाद!  तुम तो मर गए लेकिन परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा तो मिट्टी कर गए.तुम तो अपने ख्याल में मर कर मिल गए ,मगर परिवार को तो किसी से मिलने-मिलाने लायक नहीं छोड़ा. उन मां-बाप का क्या जो जिन्दा  लाश बन गए.घरमें रहो तो  की दीवारें खाने को आती हैं और बाहर लोगों की बातें तीर की तरह बींधती हैं. तुम तो चले गए,लेकिन बाकी भाई बहिन के रिश्तों पर ग्रहण लग जाता है. रिश्ते तो होंगे  लेकिन उनमें  समझौता अधिक होता होगा. जिसके किसी भाई-बहिन ने इस प्रकार मोहब्बत में जान दी हो,उनसे रिश्ते जोड़ने वाले मुश्किल से ही मिलते हैं. इसके लिए कसूरवार कौन है,ईश्वर जाने. लेकिन ये बड़ी अजीब बात है कि दशकों पहले जब इतना खुलापन नहीं था तब तो लोग मोहब्बत में जीने की बात करते थे. अब जब इण्टर कास्ट शादी आम होने लगी है. तब लड़का-लड़की का मरना हैरानी पैदा करता है. मोहब्बत तो जिंदगी में आनंद भरती है.लोग निराश,हताश,उदास होकर मरने क्यों लगे. ऊपर के किस्सों में दो रस्ते हैं.पहला , परिवार की इच्छा को मान देकर रस्ते बदल लो.मोहब्बत में त्याग को महत्व दो. दूसरा, अपनी परिवार की इच्छा को नजर अंदाज कर अपनी मर्जी करो. होता है जो हो जाने दो. समय की राह देखो, जो सब कुछ ठीक कर देता है. मरने की बात तो मोहब्बत में होनी ही नहीं चाहिए. शायद  पहले मोहब्बत बाजरे की खिचड़ी की तरह होती थी जो धीमी आंच पर धीरे धीरे सीज कर स्वादिष्ट बनती थी. अब तो  मोहब्बत दो मिनट की मैगी स्टाइल हो गई है.बनाओ,खाओ और भूल जाओ. दो लाइन पढ़ो--जीने की नहीं मरने की बात करता है हर वक्त, बड़ा कमजोर हो गया है ये नए दौर का इश्क .

Thursday 27 February, 2014

खुशियां छोटी हो गई और पैकेज बहुत बड़े बड़े



श्रीगंगानगर-पहला  सीन-सुबह सुबह एक परिचित मिल गए। बाइक  पर आगे लगभग डेढ़ साल का क्यूट  बेबी था। साथ में  उसके पहनने,खाने,पीने और खेलने के सामान का बैग। दुआ सलाम के बाद बोला,बच्चे को क्रैच छोड़ने जा रहा हूं । बीवी नौकरी पर जाएगी। मुझे भी जाना है। क्या करें! अकेले से आजकल घर ही चल सकता है और कुछ नहीं। बीवी  ड्यूटी से आएगी तो इसे लेती  आएगी। दूसरा सीन-बड़े पैलेस में  बड़ों की शादी का बड़ा समारोह। पीठ की साइड में दो व्यक्ति बात कर रहे थे। एक, मेरा बेटा फलां कंपनी में है और इतने लाख का पैकेज ले रहा है। दूसरे ने अपने बेटे की कंपनी और पैकेज बताया। दोनों खुश। कुछ क्षण यही पैकेज की बात करते रहे। फिर उनकी आवाज में दर्द आने लगा। दोनों में से कोई कहा रहा था,बेटे को बिलकुल भी समय नहीं मिलता। छुट्टी के दिन भी फुरसत नहीं। ऑफिस जाने का समय तो है लेकिन आने का नहीं। दूसरे ने उसकी हां में हां मिलाई। कुछ क्षण पहले जो पैकेज की बात कर खुश हो रहे थे वे अचानक गंभीर हो गए। जबकि ना तो उनके बच्चों के पैकेज कम हुए थे और ना ही ऐसी कोई उम्मीद थी। लेकिन मन की पीड़ा कब तक रोकी जाती। जब एक ही किश्ती में सवार थे तो बात होनी ही थी, पैकेज की भी जिंदगी की भी। ये बेशक दो सीन हों लेकिन ऐसे दृश्यों की कोई कमी  नहीं है इस शहर में। बच्चे की तरक्की की खुशी अपनी जगह और उसकी जुदाई की पीड़ा अपनी जगह। दोनों को मन में आने से कोई नहीं रोक सकता। जिस स्टेज पर ऐसे बच्चे पहुँच गए वे इस शहर से तो गए ही साथ साथ गए अपने घर –परिवार,रिश्तेदारों और परिचितों से। क्योंकि उनके लिए इधर कोई स्टेटस नहीं है। उनके लायक कोई काम नहीं। कोई कंपनी नहीं जो उनको लाखों के पैकेज दे सके। जब इनका आना इधर होगा ही नहीं तो कौन रिश्तेदार,मित्र इनको याद रखेगा। धीरे धीरे सामाजिक रिश्ते भी समाप्त होने ही हैं। ऐसे पैकेज वाले बच्चों को छुट्टी मिलेगी तभी तो ये अपने दादा,नाना,दोस्त के परिवार में होने वाले विभिन्न समारोह में आ सकेंगे। आएंगे तभी तो रिश्ते और समाजिकता का नवीनीकरण होगा। वरना कौन उनको जानेगा और कौन पहचानेगा। लेता होगा किसी का बच्चा लाखों का पैकेज ! किसी को इससे क्या ! माता-पिता के पास पैसा तो लाखों करोड़ों में आ गया,मगर वह उनकी आंखों  से दूर हो  गया जिसकी खुशी और आनंद के लिए उन्होने दिन रात एक की। ये अपने घर,समाज,गली,मोहल्ले को छोड़ कर जा नहीं सकते। इनमें इनकी रूह बसती है।इनके संबंध इधर हैं। भाई चारा है। बच्चे इधर आ नहीं सकते। बुढ़ापे को अकेला,खामोश होना ही है। जब बच्चों को हमारी जरूरत थी तब हमने उनको अलग कर दिया । जब हमें उनकी आवश्यकता होगी  तो वे आ नहीं सकेंगे। जब सबसे अधिक बच्चों की जरूरत होती है तब अकेलापन! वह भी सब कुछ होते हुए। यही विडम्बना है इस पैकेज की। दो लाइन पढ़ो—मेरी तन्हाई  को वो यूं तोड़ गया, मेरे पास अपने रिश्ते के निशां  छोड़ गया। 

Friday 14 February, 2014

प्यार को मैगी मत बनाओ



श्रीगंगानगर। प्यार, प्रीत, स्नेह, मोहब्बत दो मिनट में तैयार होने वाली मैगी नहीं है। यह तो वो बाजरे की खिचड़ी है जो धीमी-धीमी आंच पर सीजती है तभी खाने वाले और बनाने वाले को तृप्ति होती है। भूख बेशक मिट जाए लेकिन चाह नहीं मिटती। इस निगोड़े वेलेंटाइन डे ने सात्विक ,गरिमापूर्ण और मर्यादित प्रेम को मात्र जवां होते या हो चुके लड़का-लड़की के प्रेम में बांध दिया। इस अज्ञानी वेलेंटाइन डे को इनके अलावा और कोई दूसरा प्यार ना तो दिखाई देता है और ना उसमें इस प्यार को महसूस करने की क्षमता है। केवल लड़का -लड़की के मैगी स्टाइल प्यार को ही प्यार समझने वाले या तो ये जानते ही नहीं कि प्यार इससे भी बहुत आगे है या फिर उन्होंने यह जानने की कोशिश ही नहीं की प्यार तो इतना आगे है कि इसके अन्दर डूब जाने वाले व्यक्ति के लिए दुनिया अलौकिक हो जाती है। अलबेली बन जाती है। प्रीत से सराबोर व्यक्ति सहजता और सरलता की ओर बढ़ता है। घुंघरू होते तो उसके पांव में हैं और नृत्य उसका मन करता रहता है, हर क्षण। उसकी आखों में मस्ती दिखाई देती है। सबको अपने प्रेम में समाहित कर देने की चाहत नजर आती है। उसकी आंख को हर कोई अपना दिखाई देता है। जुबां पर मिठास और गुनगुनाहट रहती है। झूमता रहता है, गाता रहता है। कोई साथ है तब भी कोई फ्रिक नहीं नहीं है तब भी कोई चिन्ता नहीं। हर वक्त प्रेम के सुरूर में वह मदमस्त रहता है। लेकिन कितने अफसोस की बात है कि वेलेंटाइन डे ने प्यार को बाजार बना दिया। जो मन के अन्दर, आत्मा में, आखों में छिपाने की अधिक है दिखाने की कम, उसे सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने को मजबूर कर दिया। यह मोहब्बत नहीं बाजारूपन है। यह प्रीत नहीं, प्रीत का कारोबार है। स्नेह नहीं, स्नेह के रूपमें उपहारों की अदला-बदली है। इनको सुदामा की भक्ति में कृष्ण के लिए छिपा दोस्ती का प्यार दिखाई नहीं दे सकता। इनको यह भी याद नहीं होगा कि कभी किसी करमावती ने एक मुसलमान शासक को राखी भेजी और उस शासक ने भाई-बहिन के प्यार की एक नई परिभाषा लिखी। श्रवण कुमार का अपने माता-पिता के प्रति प्यार किसी वेलेंटाइन डे का मोहताज नहीं है। मां-बाप के बीमार होने की खबर सुन ससुराल से दौड़ी चली आने वाली लड़कियां वेलेंटाइन डे के किस्से पढ़कर बड़ी नहीं हुई थी। कृष्ण और राधा के प्रेम के समय तो इस कारोबारी वेलेंटाइन डे का अता-पता नहीं था। रावण ने कौनसा वेलेंटाइन डे पाठ पढ़ा था जो उसने अपनी बहिन सरूपनखा के लिए अपना सर्वस्य निछावर कर दिया। उर्मिला का लक्ष्मण के प्रति प्यार वेलेंटाइन डे पर निर्भर नहीं था। ये चंद उदाहरण वो हैं, जिन्होंने प्यार के रूप में रिश्तों के नए आयाम दिए। बहिन का भाई के प्रति प्यार और बाप का बेटी के प्रति प्यार बहुत बड़ा होता है। समाज में कौनसा ऐसा रिश्ता है जो प्यार के बिना एक क्षण के लिए भी कायम रह सके । परन्तु हमने कारोबार के लालच में प्यार, मोहब्बत, प्रीत, इश्क जैसे शब्दों को बहुत छोटा बना दिया जबकि ये समन्दर से भी अधिक विशाल है। इसकी गहराई भी समन्दर की तरह नापी नहीं जा सकती थी। बस, महसूस की जा सकती है और महसूस वही कर सकता है जिस के दिल में प्यार, प्रीत, स्नेह और मोहब्बत बसी हो।