Thursday 28 February, 2013

ओ त्तेरी की! परीक्षा तो आतंक बन गई



श्रीगंगानगर-परीक्षा अब आतंक बना दी गई है। इसे आतंक बनाने में सभी का हाथ है,मीडिया का भी। किसी का कम तो किसी का तोला-मासा अधिक। स्कूल,टीचर से लेकर घर तक यही आतंक पसरा है इन दिनों। समझ से परे हैं कि पहले क्या कभी परीक्षा नहीं हुई? कोई अफसर नहीं बना! इंजीनियर नहीं हुए! बढ़िया डॉक्टर्स निकल कर नहीं आए! अच्छे नागरिकों की कमी थी! जो आज है वह पहले भी था। फिर जरा से बच्चे से लेकर किशोर सभी इतने परीक्षा से अब इतने आतंकित क्यों हो गए। साथ में डरे सहमें हैं उनके पेरेंट्स। आराम, खाना-पीना,घूमना,मस्ती,उमंग सब के सब इस आतंक की भेंट चढ़ चुके हैं। घरों में परीक्षा का तनाव है। पिछड़  जाने का अंजाना भय है। रैंक में  गिरावट की चिंता है।इन सबकी वजह से स्वास्थ्य को तो हम बहुत पीछे छोड़ चुके हैं। अब कौन समझाए कि सेहत ही ठीक नहीं होगी तो चलोगे कैसे। दिलो दिमाग पर परीक्षा हावी होगी तो जो पढ़ोगे, वह याद कितना रहेगा। बस,किताब आंखों के सामने और दिमाग कहीं ओर। इसमें कोई शक नहीं है कि प्रतियोगिता के इस दौर में कोई किसी से पिछड़ना नहीं चाहता। पिछड़ना चाहिए भी नहीं। किन्तु इसका ये मतलब तो नहीं कि इस उम्र में ही जिंदगी के आनंद,उल्लास को ही खो दें। फिर आने वाले समय में तो वैसे भी अनेक प्रकार के आतंक हर इंसान की जिंदगी में रहेंगे। कम से कम यह  उम्र तो बिना डर  के निकले। परीक्षा बोझ ना बने। वह भी पढ़ाई की तरह एक सामान्य बात हो। परीक्षा का  आतंक न हो दिलो दिमाग पर इसीलिए परीक्षा से कुछ दिन पहले स्कूलों में वार्षिक उत्सव होते है। बड़ी कक्षा को विदाई पार्टी दी जाती है। यह सब इसीलिए ताकि विद्यार्थी साल भर की पढ़ाई से हट मनोरंजन से अपने दिमाग को रिचार्ज कर लें।  मन को प्रफुल्लित करें... खूब हंसे...मस्ती करें  और फिर परीक्षा की तैयारी में जुट जाएं।  बिना किसी बोझ के। ऐसा ही भाव विदाई पार्टी का होता है। परंतु समय ने कितना बदल दिया यह सब । आज कितने पैरेंट्स होंगे जो अपने बच्चों को परीक्षा के आतंक से मुक्त रखते होंगे। होगा कोई अपवाद। वरना तो यह मौसम पढ़ ले...पढ़ ले कहने का ही है। खेलने...घूमने...फिल्म...टीवी देखने का नाम लेते ही पेरेंट्स के मुखड़े का डिजायन बदल जाता है। घरों से टीवी केबल तक हटवा देते हैं ताकि बच्चे टीवी से दूर रहें। ऐसा करने से बच्चे पढ़ाई में बहुत आगे निकल जाएंगे ये संभव नहीं। पढ़ाई तो ठीक है। परंतु केवल और केवल पढ़ाई उचित नहीं। हर समय....उठते,बैठते,आते,जाते,खाते,पीते बस पढ़ाई! कब तक कोई झेल सकता है। ये पंक्ति पढ़ो दिल बहल जाएगा....मैडम जिस पर लट्टू है,वह सरकार निखट्टू है। जो मैडम को प्यारा है,वह सरदार नकारा है।


Wednesday 20 February, 2013

जरूरी नहीं है बी डी की बंद मुट्ठी का खुलना


श्रीगंगानगर-सत्ता के प्रतीक सांसद,विधायक हाथ बांधे बैठे/खड़े हों। प्रशासन जिससे मिलने को लालायित हो। मीडिया से जुड़े अधिकांश व्यक्ति ओबलीगेशन के तलबगार हों। जन-जन जिसमें असीम संभावना देख रहा हो। वक्त जिसकी मुट्ठी में हो। ऐसा व्यक्ति मुट्ठी खोलने की भूल करेगा? सवाल केवल यहीं नहीं है, उन सभी आंखों में हैं जो इस बात को समझते हैं। क्योंकि बंद मुट्ठी लाख की होती है। खुल गई तो खाक की हो जानी है। समझदार व्यक्ति मुट्ठी क्यों खोलने लगा। इस दौर में समझदार वही है जिसके सामने सत्ता हाथ बांधे खड़ी हो। प्रशासन मिलने को लालायित हो और मीडिया तलबगार। हाल फिलहाल तो ऐसा तो एक ही है इस क्षेत्र में। वो है बी डी अग्रवाल। जमींदारा पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बी डी अग्रवाल। राजस्थान में दो सौ सीटों पर चुनाव लड़ने की बात करने वाले बी डी अग्रवाल। जिनके बारे में कहा जाता है कि बीकानेर संभाग सहित कई अन्य जिलो में इनका काफी प्रभाव है। प्रभाव की केवल चर्चा है। यह प्रभाव अभी साबित नहीं हुआ है। चुनाव में बी डी अग्रवाल के उम्मीदवारों का क्या होगा अभी कुछ नहीं पता। क्योंकि पैसा और नाम ही चुनाव जीतने की गारंटी होता तो 1993 में भैरो सिंह शेखावत श्रीगंगानगर से विधानसभा का चुनाव नहीं हारते। ना बिड़ला जी को एक अदने से आदमी के साथ अपने ही क्षेत्र में हार का मुंह देखना पड़ता। वैसे जब सब कुछ वैसे ही मिल रहा है तो चुनाव की रिस्क किसलिए? चुनाव में कल को बंद मुट्ठी खुल गई तो जो है वह भी नहीं रहेगा। इसलिए जरूरी नहीं कि बी डी अग्रवाल चुनाव के रास्ते आगे बढ़ें। संभव है चुपचाप सभी को आशीर्वाद दें और खुद तमाशा देखें जीत हार का। जो जीता वह उनका। आज तो विधायक,सांसद सहित अनेक जनप्रतिनिधि उनकी हाजिरी में हैं। प्रशासन में भी जो चाहे करवा सकते हैं। चुनाव में जमींदारा पार्टी का कोई बंदा नहीं जीता तो फिर ना कोई जनप्रतिनिधि हाजिरी भरेगा ना कोई स्वाभिमानी अधिकारी। आने वाले सरकार की नाराजगी का डर अलग से। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इनकी टेंशन लेने से बेहतर है कि बी डी अग्रवाल  एक सबके लिए,सब एक के लिए के वाक्य को सार्थक कर हर वक्त मौज में रहें। वैसे भी कोई भी बड़ा कारोबारी सीधे चुनाव के चक्कर में नहीं पड़ता। इसलिए हो सकता है कि बी डी अग्रवाल भी विधानसभा चुनाव आते आते अपनी पार्टी के उम्मीदवार मैदान में उतारने की बजाए अंदर खाने कुछ खास व्यक्तियों पर दाव  लगाएं। वरना केवल महारथियों के सहारे चुनाव लड़ने का मतलब तो मुट्ठी को खोलना ही होगा। क्योंकि बी डी अग्रवाल के पास पैदल सैनिक मतलब कार्यकर्ता तो अभी तक है नहीं जिनके बल बूते पर चुनाव लड़ा जाता है।

Friday 8 February, 2013

कारोबार की तरह धर्म की भी होती है मार्केटिंग



श्रीगंगानगर-जमाना मार्केटिंग का है। किसी भी कारोबार की मार्केटिंग के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती। अब तो  रिश्तों की भी मार्केटिंग होने लगी है...वो फलां अधिकारी मेरा ये लगता है.....। जब पग पग पर मार्केटिंग का बोल बाला हो तो धर्म कैसे पीछे रहे। इसलिए होने लगी है धर्म की मार्केटिंग।  इस मार्केटिंग में तो कारोबार से अधिक कंपीटीशन है। श्रीगंगानगर भाग्यशाली है इस मामले में। यहां झांकी वाले बाला जी का मण्डल इस बात में  सबसे आगे है। उनकी इस कला का आज कोई मुक़ाबला करने वाला नहीं है। धर्म,श्रद्धा,आस्था की ऐसी मार्केटिंग की कि  पूरे क्षेत्र में इनकी और इनके बाला जी की बल्ले बल्ले हो गई। कौन है जो इस मण्डल को नहीं जानता। अपने इसी मार्केटिंग गट्स की वजह से कुछ समय में ही इनके झांकी वाले बाला जी प्रसिद्ध हो गए और उनसे अधिक प्रसिद्धि हो गई बाला जी खास भक्तों की। अब देख लो,यह कला ही है इस मण्डल की कि मदिर के आगामी उत्सव के लिए शहर भर में होर्डिंग, पोस्टर,बैनर लगाए जाएंगे। नगर की कोई मुख्य सड़क शायद ही इन पोस्टरों,होर्डिंग की झांकी से महरूम रहे। कितनी राशि इस पर खर्च होगी इनकी परवाह भी इनको नहीं है। क्योंकि पैसा लाना भी तो मार्केटिंग का एक हिस्सा है। धर्म की मार्केटिंग बढ़िया हो। लुभाने वाली हो। चमक दमक से परिपूर्ण लच्छेदार हो। सीधे सीधे किसी के धर्म,आस्था,श्रद्धा,विश्वास पर असर करती हो तो ऐसी मार्कर्टिंग वालों खर्च की फीकर करनी भी नहीं चाहिए। धन आता नहीं धन की बरसात होती है। यही तो कला है। सामने वाला समझ ही नहीं पाता कि ये हो क्या रहा है। बस,सिर नीचे किए गिरता ही चला जाता धर्म की मार्केटिंग करने वालों के पैरों में। इनकी मार्केटिंग का ही चमत्कार ही है कि इनको कहीं भी होर्डिंग लगाने से कोई मना नहीं कर सकता। चाहे वह बिजली का खंबा हो या टेलीफोन का। कोई चौराहा हो या कोई गली। ये अपने इस अनोखे हुनर का जलवा ना दिखाएँ तो फिर क्या फायदा। ये तो दुनिया जानती है कि जो दिखता है वह बिकता है। धर्म की मार्केटिंग करने की कला हर किसी को नहीं सौंपते बाला जी। इनकी झोली भरी है तो दूसरों को भी इनके पद चिन्हों पर चल यह कला सीखनी चाहिए। क्योंकि धर्म कभी समाप्त नहीं हो सकता। शहर बढ़ रहा है कई और मंदिरों का स्कोप भी है। क्या पता कोई टॉफी वाले बाला जी का मंदिर बनाना पड़ जाए। इस लिए पड़े रहो इनकी शरण में और सीख लो धर्म की मार्केटिंग। बहुत काम आएगी। बहुत क्या यही काम आएगी। कचरा पुस्तक की लाइन हैं...भगवान बनना है तो तौर तरीके भी  सीख,उसके दर से कभी कोई खाली नहीं जाता।

Tuesday 5 February, 2013

पुल क्या टूटे रिश्ते ही टूट गए.........


श्रीगंगानगर-मोहन! इससे पहले कि मोहन जवाब देता उसकी लड़की बोली, जाओ चाचा जी पापा हैं क्या आने वाले ने पूछा। क्यों पापा नहीं होंगे तो अंदर नहीं आएगा क्या,मोहन ने उसे बुलाते हुए कहा। आवाज देने वाला चचेरा भाई था। भाई घर नहीं तो मेरा अंदर क्या काम चचेरे भाई ने मोहन से कहा। ताई  होती तब,मोहन बोला। तब तो अंदर आता, ताई से आशीर्वाद लेता, चचेरे भाई ने जवाब दिया। चाहे इस संवाद को कल्पना समझो या हकीकत परंतु मुश्किल से एक मिनट का संवाद यह तो बताता ही  कि रिश्तों को बनाए रखने में बुजुर्गों की कितनी बड़ी भूमिका होती है। बेशक आज की जनरेशन माँ-बाप की अहमियत समझें सा समझें।  किन्तु उनका महत्व उन परिवारों से पूछो जहां इन्होने आपस के खट्टे मीठे  रिश्तों में पुल का काम किया। भाई-बहिनों में टूटते रिश्तों को संवाद के माध्यम से बांधे रखा। नाराज भाई बहिन किसी ना किसी बहाने इसी पुल से होकर एक दूसरे से मिले। आमने सामने होंगे तो दूरियाँ भी कम होंगी ही। जब ये पुल टूटते हैं तो रिश्ते भी छूट जाते हैं। टूट जाते हैं। कितने ही ऐसे परिवार होंगे जहां किसी बुजुर्ग के होने से वहां रौनक लगी रहती है। सुबह नहीं तो शाम को। एक दिन नहीं तो दूसरे दिन। और कुछ नहीं तो रविवार को किसी वार त्योहार को। किसी छुट्टी के दिन। मतलब ये कि उनके बहाने बहिन ,भाई,रिश्तेदार का आना हो ही जाता था। कहते हैं कि वो परिवार भाग्यशाली होता हैं जिनके घर रिश्तेदारों,अपनों का आना जाना रहता है। बुजुर्ग के बहाने आया है तो बैठेगा भी उनके पास। घर के मेम्बर भी आएंगे। भाई से भाई मिलेगा....बहिन भावज से मिलेगी...संवाद कायम रहेगा। मिलना मिलाने का सिलसिला भी लगातार चलेगा। बुजुर्ग माँ-बाप हैं तो छोटा, बड़ा भाई अपने भाई के घर जाने से नहीं हिचगेगा। घर के बच्चे भी रिश्तों को समझेंगे। उनसे पहचान करेंगे। अपनापन बढ़ेगा। घर परिवार के संबंध गहरे होंगे। उनकी गरमाहट बहुत देर तक रहेगी। अब उन घर परिवारों पर नजर दौड़ाओ  जिनके बुजुर्ग प्रस्थान कर गए। बुजुर्गों ने क्या प्रस्थान किया जैसे घर की रौनक ही चली गई। माँ-बाप नहीं रहे तो भाई-बहिन का आना भी नियमित नहीं रहा। जो रिश्तेदार बार त्योहार माँ-बाप से मिलने आते उनका आना भी धीरे धीरे कम होने लगा। होता भी कैसे नहीं, पुल जो नहीं रहे रिश्तों के बीच। सब अकेले के अकेले। जर्जर पुलों  को कोई बचाता भी कब तक! एक ना एक दिन टूटने ही थे। जिस दिन टूटे उस दिन पुल के साथ साथ भाई बहिनों के रिश्ते  बिलकुल टूटे नहीं तो छूट जरूर गए।

Sunday 3 February, 2013

रिश्तों में संवाद टूटता है तो दीवार बनती ही है


श्रीगंगानगर-पचास साल पहले जो रिश्तों की महक पूरे परिवार को सुगंधित कर गौरव का अनुभव करती थी वह अब गायब हो चुकी है। महक तो गई सो गई संवाद भी अपने साथ ले गई। संवाद टूट चुके हैं। दीवारें बन चुकी हैं। कुछ देखा और कुछ सुना। सालों पहले एक कस्बे में तीन भाइयों के तीन मकान एक साथ थे। तीनों भाइयों का भरा पूरा परिवार। बेटे,बहू,पोते,पोतियाँ....... । भोजन जल्दी कर लिया जाता था। शाम को  भोजन के बाद तीनों भाई एक भाई के यहां एकत्रित होते। सर्दी होती तो कमरे में गद्दे पर बैठते सब और  गर्मी में बाहर चबूतरे पर लकड़ी के पट्टे पर जमती महफिल। वहीं उनके लड़के भी आ जाते। बच्चे भी आस पास ही उछल कूद करते। चर्चा कुछ खास होती भी और नहीं भी। लेकिन बैठक जरूर होती थी। तब तक घरों में महिलाएं अपना काम काज निपटा लिया करती थी। चाहे उनके काम अलग थे। उनकी सोच भिन्न रही होगी। एक दूसरे की मदद भी ना करते हों। लेकिन उनमें संवाद हमेशा कायम रहा। मिलना भी नियमित रूप से होता। कुछ छोटी मोटी कोई बात भी किसी से हुई होती तो वह मिलने-मिलाने से मिट जाती।वक्त ने ऐसी करवट बदली की घर घर की तस्वीर भी बदल गई। मस्त तो अपने अपने घर में सब के सब पहले की तरह ही हैं। किन्तु अब भाइयों में वैसा मिलना नहीं रहा। मिलना तो बड़ी बात है हजारों हजार परिवार तो ऐसे हैं जहां भाइयों में राम रमी तक नहीं है। इससे उसको कोई लेना देना नहीं और उसको इससे। किसी के कुछ भी हो कोई मतलब नहीं। एक दीवार है...एक भाई के उत्सव है लेकिन इस  उत्सव की उमंग,जोश,आनंद.....दीवार के उस तरफ भाई के मकान तक नहीं पहुंचता। एक भाई संकट में हो तो दूसरा उसकी परवाह नहीं करता। उसको संकट का दर्द भी शायद ही महसूस होता हो।बहिन का मुंह पूर्व में है तो भाई का पश्चिम में। जब सगे बहिन भाइयों में ही संवादहीनता की स्थिति है तो उनके बच्चों में कोई ताल मेल कैसे रह पाएगा? उनके लिए चाचा,ताऊ,बुआ के रिश्तों के प्रति आदर-मान रहना कैसे संभव है। अंदर के झूठे,खोखले अहंकार वाले इस वक्त ने इंसान को  सब कुछ रहते हुए भी अकेला कर दिया। उसके मन की शांति,सुकून,उमंग,उल्लास सब कुछ छीन लिया। ऐसा नहीं है कि उनको इसका दुख ना होता हो, अकेलेपन में अंदर का सन्नाटा अपनों की याद ना दिलाता हो। मगर करें क्या....जैसे जैसे समय आगे बढ़ा  रिश्तों के बीच की दीवार बड़ी  होती चली गई, उनके कद से भी बड़ी। अब तो उस तरफ झांक भी नहीं सकते। शर्म भी आती है। झिझक होती है। दौड़ के एक दूसरे को गले लगाने की बात तो करना ही बेमानी है। सपना है। ख्याल है। भविष्य क्या होगा यह सोचकर ही दिल की धड़कन तेज हो जाती है।