Friday 24 May, 2013

निक्कर संस्कृति की ओर बढ़ता श्रीगंगानगर



श्रीगंगानगर-तीन दृश्यों का जिक्र कर आगे चलेंगे।दृश्य एक- युवती के दोनों हाथों में ऊपर तक काफी चूड़ियां....सुर्ख लाल सफ़ेद...शालीन ड्रेस...खूब सिंगार और चलने की अदा बता रही थी कि शादी को अधिक समय नहीं हुआ।साथ में टी शर्ट/शर्ट निक्कर पहने हुए पति जी।दृश्य दो-धार्मिक आयोजन....युवती कुछ अधिक ही स्लीव लैस जम्पर वाले पहनावे के साथ पति के संग आई.....दरबार में मत्था टेकना है  ताकि आयोजक को आने की जानकारी हो...वहां तक जाने में झिझक.... किसी से दुपट्टा लिया...सिर और कंधे ढके      तब मत्था टेका। दृश्य तीन-एक कोचिंग इंस्टीट्यूट में जाने का मौका मिला। कुर्सी पर      लगभग पसरे हुए युवक से,जिसकी शर्ट का ऊपर का बटन खुला हुआ आता, परिचय  करवाया गया....ये जी के पढ़ाते हैं। हमने वही तो देखा जो था। इसलिए ना तो नजर  खराब है और ना नीयत। कभी कभी ऐसा लगता है कि निक्कर श्रीगंगानगर की संस्कृति बन गई। निक्कर कभी पांच-सात साल के बच्चे पहना करते थे। अब युवक अपनी नई नवेली पत्नी के साथ इसे पहन सड़क पर घूमते हैं। सफर करते हैं। एक दूसरे के घरों में आते जाते हैं। कोई हिचक नहीं....कोई झिझक नहीं। रात को या घर के लिए बना पहनावा सड़क पर आ गया। दूसरे दृश्य के बारे में कुछ कहेंगे तो आप कहोगे, धर्म तो आस्था और विश्वास की बात है....पहनावा कैसा भी हो क्या फर्क पड़ता है। मन में श्रद्धा होनी चाहिए। कोई फर्क नहीं पड़ता जी। लेकिन वो हो तो आयोजन के अनुरूप। इसमें कोई शक नहीं कि आपको कोई टोकेगा नहीं...लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं कि आप दिवाली पर फाग गाओ। आपको दुपट्टा मांग कर मत्था टेकना पड़े। खुद को अटपटा लगा तभी तो दुपट्टा मांगना पड़ा। अगर आयोजन के अनुरूप ड्रेस होती तो ऐसा नहीं करना पड़ता। कोई फैशन शो है....सौंदर्य प्रतियोगिता है.....तब तो आपको अलग बात है। यही बात टीचर की। उसका बैठने,उठने,चलने और हर आचरण में शिक्षक दिखना चाहिए...झलकना चाहिए। शिक्षक का अपना महत्व है। वह समाज का पथ  प्रदर्शक होता है। उसके मान सम्मान में एक आदर का भाव भी सम्मिलित रहता है। बच्चा शिक्षक की गलती से बताई,समझाई गलत  बात को भी सही मानेगा। इससे अधिक उसकी महता क्या होगी! बात बेशक छोटी सी हैं। परंतु ये हैं वो जो हमारे समाज में आ रहे बदलाव को बताती हैं। ये शुरुआत है तो अभी बहुत कुछ देखना बाकी है। ऐसा कुछ जो इससे भी आगे की कथा कहने को प्रेरित: करेगा। 

Friday 10 May, 2013

तुम खुद को छलते हो



धरा पर गर्जन करते
समंदर का निर्माण तुमने किया है,
गंगा,यमुना,सरस्वती को
रास्ता तुमने दिया है,
सृष्टि को जीवंत करने वाले
दिन को जरूर
तुमने ही बनाया होगा,
रात को चांद तारों से झिलमिल
आकाश को धरती के ऊपर
तुम्ही ने सजाया होगा,
सैकड़ों किस्म के मनभावन फूल
तुमने ही खिलाए होंगे,
दिलकश रंग भर के ये सब
तुमने ही महकाए होंगे,
प्यारे सलोने परिंदों ने
तुमसे ही सीखा होगा उड़ान भरना,
अपनी मीठी बोली से
तुम्हारे ही दिल में बसना,
तुम जानते हो ये सब
तुम्हारे बस में बिलकुल नहीं है,
तुम तो बस
रूप बदलने में माहिर हो,
रूप चाहे खुद का हो या
प्रकृति के उपहारों का,
रूप बदल तुम
अकड़ के चलते हो
किस और को नहीं
तुम खुद को छलते हो।

Tuesday 7 May, 2013

अन्ना हज़ारे तो टीवी में ही बढ़िया लगते हैं!


 श्रीगंगानगर-कुछ ऐसी चीजें होती हैं जो दूर से ही सुहानी लगती है। ठीक ऐसे, जैसे अन्ना हज़ारे टीवी पर ही सजते हैं। ऊंचे मंच पर तिरंगा फहराते अन्ना हर किसी को मोहित,सम्मोहित करते हैं।  चेहरे पर आक्रोश ला जब वे वंदे मातरम का नारा लगाते हैं तो जन जन की उम्मीद दिखते हैं। वे अपने लगते हैं...जो इस उम्र में लाखों लोगों की आँखों  में एक नए भारत की तस्वीर दिखाते हैं। अनशन के दौरान मंच पर निढाल लेटे अन्ना युवाओं के दिलों में चिंता पैदा करते हैं....हर ओर एक ही बात अन्ना का क्या हुआ? बड़े आंदोलन के  कारण अन्ना आज के दौर के गांधी हो गए। उनमें अहिंसक गांधी की छवि दिखने लगी। पर जब अन्ना निकट आए तो सब कुछ चकनाचूर हो गया। ऐसे लगा जैसे अन्ना हज़ारे को रिमोट से कोई चला रहा हो। उनकी केवल जुबां और शरीर...बाकी सब वे तय करते हैं जो उनके साथ हैं। सामने हष्ट पुष्ट बॉडी गार्ड का के घेरे में हैं अन्ना और भीतर किसी दूसरों के। दूसरी आजादी की बात करने वाले अन्ना हज़ारे रात को 12-35 पर कमरे में जाते हैं और अगले दिन सुबह 9-35 पर बाहर लाये जाते हैं। इस दौरान वे उन लोगों से तो नहीं मिले जो उनसे प्रभावित हैं। वे ना तो उनको दो शब्द  कहते हैं जो आधी रात को उनके लिए आए हैं और ना मीडिया कर्मियों को जो उनकी बात छापने के लिए लालायित हैं। भगत सिंह,सुखदेव और राजगुरु की शपथ दिलाते हैं और खुद जनता से मिलते नहीं। उनके आने से पहले उनका मीनू पहले पहुंचता हैं...कि अन्ना हज़ारे इडली खाएंगे या चपाती....दूध कितना ठंडा और कितना मीठा होगा। बाकी लोग सुबह फल लेंगे..नाश्ता....भोजन सब कुछ। इतिहास में इस बात का तो कहीं जिक्र नहीं है कि देश की आजादी के लिए निकले क्रातिकारियों से पहले उनका मीनू गया हो। उनके जीवन में आराम और स्वाद के लिए समय ही कहां था। जनता उनको देखने के लिए भी उतनी संख्या में नहीं आई जितना बड़ा इनका नाम हो चुका है। खुद तमाम पार्टियों को भ्रष्ट बताते हैं जब मीडिया आयोजकों की बात करे तो कहते हैं कि अपना चश्मा बदल लो। ये तो कमाल है ना। यहां ना आते तो कम से कम एक भ्रम तो रहता कि अन्ना हज़ारे ऐसे हैं...वैसे हैं...देश को बदल देंगे। उनके प्रति विश्वास था। उनके लिए श्रद्धा थी। उनको टीवी पर देख दिल में रोमांच का अनुभव होता था। अन्ना हज़ारे आए तो ये भ्रम भी नहीं रहे।