Monday 29 June, 2009



यह फोटो रिटायर्ड आई टी ओ सी एल वधवा ने भेजा। उनका आभार।

Thursday 25 June, 2009

आपातकाल का दिन

आज के ही दिन १९७५ में हिंदुस्तान में आपातकाल तत्कालीन सरकार ने लगा दिया था। तब से लेकर आज तक देश की एक पीढी जवान हो गई। इनमे से करोड़ों तो जानते भी नहीं होंगें कि आपातकाल किस चिड़िया का नाम है। आपातकाल को निकट से तो हम भी नहीं जानते,हाँ ये जरुर है कि इसके बारे में पढ़ा और सुना बहुत है। तब इंदिरा गाँधी ने एक नारा भी दिया था, दूर दृष्टी,पक्का इरादा,कड़ा अनुशासन....आदि। आपातकाल के कई साल बाद यह कहा जाने लगा कि हिंदुस्तान तो आपातकाल के लायक ही है। आपातकाल में सरकारी कामकाज का ढर्रा एकदम से बदल गया था। कोई भी ट्रेन एक मिनट भी लेट नहीं हुआ करती। बतातें हैं कि ट्रेन के आने जाने के समय को देख कर लोग अपनी घड़ी मिलाया करते थे। सरकारी कामकाज में समय की पाबन्दी इस कद्र हुई कि क्या कहने। इसमे कोई शक नहीं कि कहीं ना कहीं जयादती भी हुई,मगर ये भी सच है कि तब आम आदमी की सुनवाई तो होती थी। सरकारी मशीनरी को कुछ डर तो था। आज क्या है? आम आदमी की किसी भी प्रकार की कोई सुनवाई नहीं होती। केवल और केवल उसी की पूछ होती है जिसके पास या तो दाम हों, पैर में जूता हो या फ़िर कोई मोटी तगड़ी अप्रोच। पूरे देश में यही सिस्टम अपने आप से लागू हो गया। पता नहीं लोकतंत्र का यह कैसा रूप है? लोकतंत्र का असली मजा तो सरकार में रह कर देश-प्रदेश चलाने वाले राजनीतिक घराने ले रहें हैं। तब हर किसी को कानून का डर होता था। आज कानून से वही डरता है जिसको स्टुपिड कोमन मैन कहा जाता है। इसके अलावा तो हर कोई कानून को अपनी बांदी बना कर रखे हुए है। भाई, ऐसे लोकतंत्र का क्या मतलब जिससे कोई राहत आम जन को ना मिले। आज भी लोग कहते हुए सुने जा सकते हैं कि इस से तो अंग्रेजों का राज ही अच्छा था। तब तो हम पराधीन थे।कोई ये ना समझ ले कि हम गुलामी या आपातकाल के पक्षधर हैं। किंतु यह तो सोचना ही पड़ेगा कि बीमार को कौनसी दवा की जरुरत है। कौन सोचेगा? क्या लोकतंत्र इसी प्रकार से विकृत होता रहेगा? कोमन मैन को हमेशा हमेशा के लिए स्टुपिड ही रखा जाएगा ताकि वह कोई सवाल किसी से ना कर सके। सुनते हैं,पढ़तें हैं कि एक राज धर्म होता है जिसके लिए व्यक्तिगत धर्म की बलि दे दी जाती है। यहाँ तो बस एक ही धर्म है और वह है साम, दाम,दंड,भेद से सत्ता अपने परिवार में रखना। क्या ऐसा तो नहीं कि सालों साल बाद देश में आजादी के लिए एक और आन्दोलन हो।

Tuesday 23 June, 2009

नो कमेन्ट प्लीज़

श्रीगंगानगर में नर्सिंग कॉलेज की एक छात्रा पर किसी ने तेजाब दल दिया। तेजाब उसके चेहरे और शरीर के अन्य हिस्से पर गिराया गया। लड़की की एक आँख तो ख़राब हो गई। बताया गया है कि तेजाब उस समय डाला गया जब लड़की अपने घर सो रही थी।

Sunday 21 June, 2009

समय का फेर या भाग्य का खेल

किसी पेड़ की,किसी भी साख से
पत्ता भी गिरता,तो,हो जाती थी ख़बर,
अब तो तूफान भी, पास से
निकल जाए, तब भी, पड़ती नहीं नजर।
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ना जाने किस किस की ख़बर
रहती थी, जेब में हमारे,
अब तो, ख़ुद के बारे में भी
ख़ुद को, कुछ पता नहीं होता।
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ये समय का फेर है कोई
या फ़िर, भाग्य का कोई खेल,
जो मिलते थे बाहें पसार कर
होता नहीं कभी, अब, उनसे कोई मेल।

Friday 19 June, 2009

पी,पी,पी और एक और पी


पब्लिक,पुलिस,प्रेस और पॉलिटिकल लोग। मतलब चार पी। आम तौर पर ये कहा,सुना जाता है कि इनमे आपस में खूब ताल मेल होता है। एक दूसरे के पूरक और एक दूसरे की जरुरत हैं,सभी पी। हाँ, ये जरुर हो सकता है कि कहीं कोई दो पी में अधिक घुटती हैं,कहीं किसी दो पी में। ऐसा तीन पी के साथ भी हो सकता है,चार पी के साथ भी। श्रीगंगानगर के बारे में थोड़ा बहुत हम समझने लगे हैं। सम्भव है हमारी सोच किसी और से ना मिलती हो। हमें तो ये लगता है कि हमारे यहाँ पुलिस और प्रेस का मेल मिलाप बहुत बहुत अधिक है। यूँ कहें कि इनमे चोली दामन का साथ है,दोनों में जानदार,शानदार,दमदार समन्वय,सामंजस्य है। यह सब लगातार देखने को भी मिलता रहता है।श्रीगंगानगर की पुलिस कहीं भी कोई कार्यवाही करे,केवल जाँच के लिए जाए,छापा मारी करे, प्रेस भी उनके साथ होती है। कई बार तो ऐसा होता है कि पुलिस कम और प्रेस से जुड़े आदमी अधिक होते हैं। कभी पुलिस आगे तो कभी प्रेस। कई बार तो ये भ्रम होता है कि पुलिस के कारण प्रेस वाले आयें हैं या प्रेस के कारण पुलिस। अब जहाँ भी ये दोनों जायेंगें,वहां के लोगों में घबराहट होना तो लाजिमी है। इन दो पी में ऐसा प्रेम बहुत कम देखने को मिलता है। प्रेस का तो काम है,एक्सक्लूसिव से एक्सक्लूसिव फोटो और ख़बर लाना,उसको अख़बार में छापना। काम तो पुलिस भी अपना ही करती है,लेकिन प्रेस के कारण उसको इतनी अधिक मदद मिलती है कि क्या कहने। एक तो अख़बारों में फोटो छप जाती हैं। दूसरा, प्रेस पर अहसान रहता है कि उनको मौके की तस्वीर पुलिस के कारण मिल गई। तीसरा,पुलिस अपराधी पर दवाब जबरदस्त तरीके से बना पाती है। सबसे खास ये कि पुलिस किसी नेता या अफसर का फोन सिफारिश के लिए आए तो उसे ये कह कर टरका सकती है-सर,आप जैसा कहो कर लेंगें मगर यह सब अख़बारों में आ गया। सर, अख़बारों में फोटो भी छप गई,पता नहीं प्रेस को कैसे पता लगा गया कार्यवाही का। सर....सर....सर..... । इसके अलावा अन्दर की बात भी होती है। जैसे,पुलिस जिनके यहाँ गई उनको ये कह सकती है कि भाई, प्रेस साथ में हैं हम कुछ नहीं कर सकते। अब कार्यवाही के समय कौनसी फोटो लेनी है, कौनसी नहीं। कौनसी व्यक्तिगत है,कौनसी नहीं, ये या तो पुलिस बताये[ कई बार संबंधों के आधार पर पुलिस ऐसा बताती भी है। तब प्रेस को फोटो की इजाजत नहीं होती] या फ़िर प्रेस ख़ुद अपने विवेक से निर्णय ले। पब्लिक को तो पता ही नहीं होता कि प्रेस कौनसी फोटो छाप सकता है कौनसी नहीं। इन सब बातों को छोड़कर इसी मुद्दे पर आतें हैं कि श्रीगंगानगर में प्रेस-पुलिस का आपसी प्रेम [ एक और पी] बना रहे। अन्य स्थानों के पी भी इनसे कुछ सीखें। इन पी को हमारा सलाम।

Thursday 18 June, 2009

आपातकालीन स्थिति के लिए

Dear All,We all carry our mobile phones with names & numbers stored in its memory। But nobody, other than ourselves, knows which of these numbers belong to our closest family or friends. If we were to be involved in an accident or were taken ill, the people attending on us would have our mobile phone but wouldn't know who to call. Yes, there are hundreds of numbers stored ; but which one is the contact person in case of an emergency? Hence this "ICE" (In Case of Emergency) Campaign. The concept of "ICE" is catching on quickly. It is a method of contact during emergency situations. As cell phones are carried by the majority of the population, all you need to do is store the number of a contact person or persons who should be contacted during emergency under the name "ICE" ( In Case Of Emergency).
यह पोस्ट मेरे किसी शुभचिंतक ने मेल की है। इसे यहाँ इसलिए पोस्ट किया गया है ताकि यह संदेश अधिक से अधिक लोगों तक पहुँच सके।
The idea was thought up by a paramedic who found that when he went to the scenes of accidents, there were always mobile phones with patients, but they didn't know which number to call. He therefore thought that it would be a good idea if there was a nationally recognized name for this purpose. In an emergency situation, Emergency Service personnel and hospital Staff would be able to quickly contact the right person by simply dialing the number you have stored as "ICE." For more than one contact name, simply enter ICE 1, ICE 2 and ICE 3 etc. A great idea that will make a difference!Let's spread the concept of ICE by storing an ICE number in our mobile phones today!!! ! Please forward this. It won't take too many "forwards" before everybody will know about this. It really could save your life, or put a loved one's mind at rest .

Wednesday 17 June, 2009

क्रिकेट की टेंशन तो समाप्त हुई

सुबह सुबह एक क्रिकेट प्रेमी मित्र मिल गए। मिलते ही बोले,चलो एक टेंशन तो मिटी। सोचा, रात को मिले तो ठीक थे। अचानक ऐसा रात को क्या हुआ और जो ठीक भी हो गया। मैंने पूछा,कौनसी टेंशन? वह बोला, भारत की क्रिकेट टीम टी-२० से बाहर हो गई। करोडों देशवासियों को चिंता रहती,क्या होगा? जीतेंगें, हारेंगें! अब ये चिंता तो समाप्त हुई। इतना कह कर वे चले गए। लेकिन मैं सोच रहा था कि उनकी एक ही टेंशन समाप्त हुई है। इसका मतलब उनको और भी टेंशन है। सचमुच और बहुत सी टेंशन हैं घर घर में। जैसे बालिका वधु में सुगना का क्या होगा? माँ सा का व्यवहार बदलेगा या नहीं? महलों वाली रानी कुंदन के घर चली गई! हाय अब क्या होगा?रानी उसको सुधार कर कब घर आयेगी?वैसे एक सड़क दुर्घटना के कारण ऐसा होता है यह पहली बार देखा।घर घर में इस बात की टेंशन भी है कि क्या ज्योति की जिंदगी में खुशियाँ फ़िर से आएँगी?क्या होगा जब अक्षरा और ऋतुराज आमने सामने होंगें? हमको ये टेंशन नहीं कि बुजुर्ग मम्मी-पापा को डॉक्टर के पास लेकर जाना है। उनके लिए आँख की दावा या चश्मा लाना है।हमारे मुहं में रोटी का निवाला होता है,आँख टीवी पर,एक हाथ रिमोट पर,दिमाग बाजार के किसी काम या दफ्तर में और कान वो सुन रहे होते हैं जो बीबी,मां या बच्चे कुछ बोल रहे हैं। फ़िर हम कहते हैं कि आजकल भोजन में स्वाद नहीं आता। स्वाद , स्वाद तो जब आएगा जब तुम भोजन करोगे। रिमोट हाथ में लेकर बार बार चैनल बदल रहें हैं। पता नहीं आपके अन्दर का आदमी कौनसा चैनल देखना चाहता है। जीरो से लेकर सौ तक देखा,फ़िर जीरो पर आ गए। उसके बाद वही एक,दो,तीन लगातार सौ तक। इसका कारण है कि हमारा दिमाग टीवी में नहीं कहीं ओर है।कल एक जैन मुनि श्री प्रशांत कुमार से मिलने का अवसर मिला। उन्होंने एक पुस्तक"सफलता का सूत्र" दी। इस किताब में एक जगह लिखा है-शिक्षित सा दिखने वाला एक युवक दौड़ता हुआ आया और टैक्सी ड्राईवर से बोला-"चलो,जरा जल्दी मुझे ले चलो। " हाथ का बैग उसने टैक्सी में रखा और बैठ गया। ड्राईवर ने टैक्सी स्टार्ट कर पूछा ,साहब कहाँ जाना है?युवक बोला,सवाल कहाँ -वहां का नहीं है,सवाल जल्दी पहुँचने का है। बस हम जल्दी पहुंचना चाहते हैं, लेकिन लक्ष्य तय नहीं किया।

Tuesday 16 June, 2009

श्रीगंगानगर के नए कलेक्टर




श्रीगंगानगर को नया जिला कलेक्टर मिल गया। लंबे इंतजार के बाद आशुतोष एटी पेडणेकर श्रीगंगानगर में जिला कलेक्टर नियुक्त किए गए। उन्होंने कार्य संभालने के कुछ घंटे बाद ही प्रेस कांफ्रेंस की। लंबे समय के बाद ये पहले कलेक्टर हैं जिन्होंने मीडिया को बुलाया। इस से पहले कितने ही कलेक्टर आए चले गए,कभी प्रेस कांफ्रेंस नहीं की। ऐसा नहीं कि मीडिया से नहीं मिलोगे तो कलक्टरी नहीं होगी। वह तो होगी ही। लेकिन मीडिया प्रशासन और पब्लिक के बीच की कड़ी तो है ही। मीडिया में भी चाहे कितनी ही कमियां आ गईं हों, इसके बावजूद पब्लिक अब भी मीडिया पर विश्वास तो करती ही है। ऐसी जगह, जहाँ एक दर्जन दैनिक अखबार निकलते हों, वहां का मीडिया कुछ तो अवश्य होता होगा।
नए कलेक्टर ने अपनी बात कही। अपनी और सरकार की प्राथमिकताएं बताई। साथ में कहा कि रिजल्ट तुंरत देखने को मिलेंगें। श्री आशुतोष ने आने से पहले गूगल सर्च में श्रीगंगानगर के बारे में जाना,नगर का नक्शा देखा। नगर की तारीफ की। किंतु उनको ये नहीं मालूम कि श्रीगंगानगर के लोगों का स्वभावबिल्कुल अलग किस्म का है। यहाँ तो, जो जनता का हो गया वह सब कुछ पा जाता है। हेकड़ी में रहकर, केवल दफ्तर में बैठ कर कलक्टरी करने वाला यहाँ अधिक पापुलर नहीं होता। हाँ, यह तो सम्भव है कि बड़े अख़बार के संपादक उनके आजू बाजू बैठकर उनकी शान में कशीदे पढ़ें, उनको शब्दों के अलंकरण भेंट करें,उनकी बड़ी बड़ी फोटो छपकर अख़बार दिखाएँ। किंतु असली कलेक्टरी तो वह होगी जिसमे जनता को कुछ राहत मिलेगी,जनता बिना किसी टेंशन के रहेगी,उनको लगेगा कि यह कलेक्टर तो हमारे लिए ही है। फिलहाल गुड लक टू न्यू कलेक्टर। इस उम्मीद के साथ कि कुछ होगा। जैसे मीडिया को बुलाकर नई शुरुआत की।

Monday 15 June, 2009

बिरादरी ने दुत्कारा अपने ही पॉप को

श्रीगंगानगर के विधायक हैं,राधेश्याम गंगानगर। इन्होने १९७७ से लेकर २००८ के विधानसभा चुनाव तक अपनी अरोड़ा बिरादरी के दम पर राजनीति की। चार बार विधायक चुने गए। कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे। इनको इलाके में अरोड़ा बिरादरी के पॉप कहा जाता था। सच भी था, श्रीगंगानगर में कल से पहले अरोड़वंश का अध्यक्ष राधेश्याम के आशीर्वाद से ही बनता था। मगर कल उनको उनकी अरोड़ा बिरादरी ने ही दुत्कार दिया। अरोड़वंश समाज ने विधायक राधेश्याम गंगानगर के लड़के वीरेंद्र राजपाल को हराकर एक युवा अजय नागपाल को अपना प्रधान चुन लिया। राधेश्याम गंगानगर ने अपने राजनीतिक जीवन में छोटी बड़ी कई हार जीत का सामना किया। किंतु अपनी बिरादरी में इस प्रकार की हार से वे पहली बार दो चार हुए हैं। उनकी अब तक की राजनीति केवल और केवल अरोड़ा बिरादरी के दम पर ही रही। क्योंकि श्रीगंगानगर में इनकी बिरादरी के वोटों की संख्या सबसे अधिक है। अपनी बिरादरी के वोटों की संख्या के चलते उन्होंने गत विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का टिकट ना मिलने पर बीजेपी का दामन थामा और जीत हासिल की। लेकिन छः माह में बिरादरी ने उनसे किनारा कर लिया। जिस अजय नागपाल ने प्रधानगी का चुनाव जीता है,वह भी बीजेपी का है। लेकिन उसके साथ कांग्रेस के लीडर सबसे अधिक लगे हुए थे। राधेश्याम विरोधी तो उसके साथ थे ही।राधेश्याम गंगानगर अपने घर हुई इस हार को किस प्रकार लेंगें,फिलहाल कुछ कहना मुश्किल है। सम्भव है वे बीजेपी को अलविदा कहकर अपनी पुरानी पार्टी कांग्रेस में लौट जायें। राधेश्याम कांग्रेस को अपनी मां कहा करते थे। हो सकता है किसी दिन वे प्रेस कांफ्रेंस में यह कहते नजर आयें, सपने में मेरी कांग्रेस मां आई, कहने लगी,बेटा अब लौट आ मेरे पास। इसलिए मैं कांग्रेस में आ गया,मतलब मां के पास लौट आया। वे ये भी कह सकते हैं, माता कुमाता नहीं होती,बेटा कपूत हो सकता है। देखो, आने वाले दिनों में श्रीगंगानगर की राजनीति में नया क्या होता है। क्योंकि कोई ये सोच भी नहीं सकता था की राधेश्याम गंगानगर को अपनी बिरादरी में ही मात खानी पड़ सकती है। बिरादरी के दम पर जिसने हमेशा राजनीति की हो,उसको बिरादरी दुत्कार दे तो कुछ ना कुछ सोचना तो पड़ता ही है। जब राधेश्याम गंगानगर कुछ सोचेंगें तो तब कुछ न कुछ तो नया होगा ही। आख़िर उन्हें यहाँ की राजनीति का राज कपूर ऐसे ही तो नहीं कहा जाता। राज कपूर फिल्मो के शो मेन थे तो राधेश्याम यहाँ की राजनीति के।

Saturday 13 June, 2009

ऐसा क्यों होता है



आप नहीं होते तो
हम,खूब अंगडाई
लेते हैं,इठलाते हैं,
आपके आते ही
छुई-मुई की भांति
अपने आप में
सिमट जाते हैं।
ये क्या है
ऐसा क्यों होता है
हम नहीं जानते,
हाँ,इतना तो है
आप के सिवा
हम किसी को
अपना नहीं मानते।

Friday 12 June, 2009

ज़िन्दगी नहीं,मौत चाहिए

विडियो में जो बिस्तर पर दिख रहा है, वह है, सुशील कुमार। यह आजकल यहाँ, श्रीगंगानगर होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेज में भर्ती है। गर्दन से नीचे का उसका शरीर काम नही करता। उसकी यह हालत कई साल पहले हुई। उसकी गर्दन में कोई तकलीफ थी। उसने देश के जाने माने हॉस्पिटल, आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस,नई दिल्ली, में अपना इलाज करवाया। लगातार दो दिन दो ओपरेशन किए गए। यह युवक इसी प्रकार बिस्तर पर पड़ा भगवान और डॉक्टर से मौत मांग रहा है। जिस मेडिकल कॉलेज में यह भर्ती है,वहां इससे कोई पैसा नहीं लिया जा रहा। कॉलेज के एमडी घनश्याम शर्राफ ने बताया कि मैनेजमेंट इसके इलाज और भोजन का खर्च तो वहां कर ही रही है,इसके साथ साथ इसके बच्चे को भी संस्थान में फ्री शिक्षा दी जायेगी। समाजसेवा भावी कई नागरिक लाचार सुशील की मदद को आगे आ रहें हैं। आज श्रीराम तलवार,लालचंद,प्रेम तंवर आदि ने हॉस्पिटल जाकर सुशील को आर्थिक सहायता दी। उन्होंने और भी सहायता करने का वादा किया। सुशील का परिवार आर्थिक रूप से बिल्कुल टूट चुका है। आज परिवार पैसे पैसे को मोहताज हो गया। उसको आर्थिक मदद की जरुरत है।
नारदमुनि ने सुशील कुमार की तमाम रिपोर्ट्स एक बड़े डॉक्टर से कंसल्ट की। डॉक्टर ने बताया कि सुशील को जो तकलीफ है,वह गंभीर है। ऐसे में रोगी के बचने के चांस एक-दो प्रतिशत ही होते हैं। एम्स की बजाय कहीं ओर इलाज करवाता तो लाखों रुपये लग जाते। उनका कहना था कि आदमी को फांसी लगाने के बाद जिस हड्डी के टूटने से मौत होती है,वही हड्डी सुशील की टूटी हुई थी। एम्स की रिपोर्ट्स के अनुसार वहां इसी बीमारी का ओपरेशन किया गया। एम्स की रिपोर्ट्स में इस बात का उल्लेख है कि रोगी के हाथ-पाँव पहले ही ठीक से काम नहीं कर रहे थे।

Wednesday 10 June, 2009

ये कैसी विडम्बना है

एक घटना,जिसका मेरे,हमारे परिवार,हमारे खानदान से किसी प्रकार का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कोई सम्बन्ध नहीं है। इसके बावजूद इस घटना ने मुझे विचलित कर दिया। बात को थोड़ा पीछे ले जाना होगा। एक मां-बाप ने एक घर में अपने बेटे -बेटियों को पाला, उनके विवाह कर उनको समाज में गृहस्थी चलाने के लिए स्वतन्त्र किया। मां-बाप एक बड़े मकान में रहते थे। ऊपर वाली मंजिल में उनका बेटा अपने परिवार के साथ। बाप रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी,जिसको अच्छी पेंशन मिलती है। घर में बाप-बेटे,सास-बहु में थोडी बहुत खटपट होती होगी, जैसी लगभग हर घर में होती रहती है। मकान बाप का। यह सब कुछ बाप ने अपनी मेहनत से बनाया। बेटों का इसमे कोई योगदान नहीं। एक दिन देखा कि उनके घर के आगे एक वाहन में घर का सामान लदान किया जा रहा था। सोचा, बेटा अपने परिवार को लेकर जा रहा होगा। लेकिन बाद में मालूम हुआ कि बेटा नहीं बाप अपना सामान लेकर कहीं ओर चला गया। छोड़ गया वह घर जो उसने सालों की मेहनत से बनाया था। इसी घर में उसने अपने बच्चों को खेलते,प्यार करते लड़ते देखा था। त्यागना पड़ा उस घर को, जिसके ईंट गारे में, उसकी ना जाने कितनी मधुर स्मृतियाँ रची-बसी थीं। वही घर उनके लिए अब पराया हो गया था।बाप होने का यह मतलब है कि वह सब कुछ खोता ही चला जाए! एक पिता होने कि इतनी बड़ी सजा कि उसको वह दर छोड़ के जाना पड़े जहाँ उसने अपनी पत्नी के साथ अपना परिवार बनाया,घर को उम्मीदों,सपनों से सजाया संवारा। फ़िर बाप भी ऐसा जो किसी बच्चे पर बोझ नहीं। उसकी पेंशन है। वैसे भी वह अपनी पत्नी के साथ अलग ही तो रहता था। क्या विडम्बना है कि आदमी को अपने ही घर से यूँ रुसवा होना पड़ता है। क्या मां-बाप इसलिए पुत्र की कामना करते हैं?केवल यह उनके घर का मामला है,यह सोचकर हम चुप नहीं रह सकते। क्योंकि यह हमारे समाज का मामला भी तो है। ठीक है हम कुछ कर नहीं सकते ,परन्तु चिंतन मनन तो कर सकते हैं,ताकि ऐसा हमारे घर में ना हो।सम्भव है कसूर मां-बाप का भी हो। हो सकता है उन्होंने संतान को सब कुछ दिया मगर संस्कार देना भूल गए हों।

Monday 8 June, 2009

कलेक्टर नहीं है


ख़बर---श्रीगंगानगर में सात दिनों से जिला कलेक्टर नहीं !
टिप्पणी--- जिला कलेक्टर था तो क्या खास बात थी !

श्रीगंगानगर के जिला कलेक्टर राजीव सिंह ठाकुर एक केन्द्रीय मंत्री के निजी सचिव बन गए। राजस्थान सरकार ने अभी तक नया कलेक्टर नही लगाया है। इस बात को सात दिन हो गए।

Sunday 7 June, 2009

मां तो मां है

कोई जवाब है क्या
मां तो मां है !
एक बार बरसात में भीगा हुआ मैं घर पहुँचा।
भाई बोला, छाता नहीं ले जा सकता था।
बहिन ने कहा, मुर्ख बरसात के रुकने तक इन्तजार कर लेता।
पापा चिल्लाये, बीमार पड़ गया तो भागना डॉक्टर के पास। सुनता ही नहीं।
मां अपने आँचल से मेरे बाल सुखाते हुए कहने लगी, बेवकूफ बरसात, मेरे बेटे के घर आने तक रुक नहीं सकती थी।
क्यों है कोई जवाब।
यह सब मेरे एक शुभचिंतक ने मुझे मेल किया है।
उनका दिल से धन्यवाद।

Friday 5 June, 2009

जस्ट फॉर चेंज, रस्ते का पत्थर


अगर तुम समझती हो
मैं रास्ते का पत्थर हूँ,
तो मार दो ठोकर मुझे
पत्थर की ही तरह,
ध्यान रखना तुम्हारे पैर में
कोई चोट ना लग जाए,
कहीं तुम्हारे दिल से
कोई आह ना निकल जाए,
निकली अगर आह तो
इस पत्थर को दुःख होगा,
हट गया रास्ते से
तो दोनों को ही सुख होगा,
फ़िर मैं सड़क के
किनारे पर पड़ा रहूँगा,
इस राह जाने वाले को
कुछ भी नहीं कहूँगा,
बस, मेरा इतना काम
तुम आते जाते जरुर करना,
उसके बाद मेरा फर्ज होगा
दुआ से तुम्हारा दामन भरना।

Thursday 4 June, 2009

राजशाही आने को है हिंदुस्तान में

हिंदुस्तान की संसद में ५४३ सदस्य हैं। इस बार इनमें से कितने ऐसे हैं जो अपने परिवार की विरासत को आगे बढ़ा रहें हैं। इंदिरा गाँधी का तो जैसे सारा कुनबा ही आ गया। देश वासियों को इसकी जानकारी तो होनी ही चाहिए कि संसद में उन सांसदों की संख्या क्या है जिनका कोई रिश्तेदार ना तो पहले कभी सांसद रहा न विधायक। जिस प्रकार की खबरें पढ़ने और देखने में आ रही है उस से तो ऐसा लगता है कि इस बार ऐसे सांसदों की गिनती ज्यादा है जो परिवार वाद के कारण यहाँ तक आयें हैं। यही हाल रहा तो एक दिन संसद में केवल वही बैठे नजर आयेंगें जिनके परिजनों ने कभी यहाँ की शोभा बढाई होगी। इसका मतलब, राजशाही बदले हुए रूप में दिखने लगेगी। तब यहाँ लोकतंत्र की आड़ में राजशाही व्यवस्था काम करेगी। तमिलनाडू, उड़ीसा,पंजाब में तो इसके रंग दिखने लगे हैं।
बचपन में [मेरे बचपन में] मेरे दादा नगरपालिका के मेंबर रहे थे। अगर वे आगे बढ़ते और मैं या परिवार का कोई सदस्य उनका हाथ पकड़ कर आगे बढ़ता तो शायद हम भी इसका हिस्सा बन जाते। ऐसा हो ना सका। ऐसा होता तो यह सब लिखने के कहाँ से आता। तब तो कोई लिखता भी तो बुरा लगता।
खैर! प्रश्न वही कि कितने सांसद परिवार वाद को आगे बढ़ा रहें हैं? अगर किसी को पता हो तो जरुर बताये। जिससे हमारी जानकारी में बढोतरी हो सके।

Tuesday 2 June, 2009

बस , सौ सौ रूपये

बात पाँच चार साल पुरानी होगी। नगर के बहुत बड़े सेठ के यहाँ से शादी का कार्ड आया। कार्ड आया तो जाना ही था। चला गया। लिफाफा ना देने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। दूसरे दिन बड़े भाई साहब ने घर पर कार्ड देखा और बोले, शादी में गया था? क्या दिया? मैंने बताया, इकतीस रूपये दिए। उन्होंने कहा, इतने बड़े सेठ के केवल इकतीस! मैंने उनसे कहा, भाई साहब मैंने उनकी हैसियत के हिसाब से नही अपनी हैसियत के अनुसार दिए हैं। उनकी हैसियत से तो जो भी देता कम ही पड़ते। यह सच्ची बात आज नॉएडा में हुई उस प्रेस कांफ्रेंस की भूमिका में जिसमे प्रेस नोट के लिफाफे में सौ सौ रूपये दिए गए पत्रकारों को। मेरे हिसाब से तो आयोजकों ने अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत से सौ सौ रूपये दिए। अगर उन्होंने पत्रकारों की हैसियत के अनुसार दिए तो यह बहुत ही चिंता का विषय है। चिंता इसलिए कि जहाँ मीडिया की तोपें रहतीं हैं वहां प्रेस कांफ्रेंस में केवल सौ सौ रूपये! बड़े ही अफ़सोस की बात है। इतनी मंदी तो नहीं है कि केवल सौ सौ रूपये में काम चलाया जाए। एक टीवी चैनल पर मैंने ख़ुद देखा। लिफाफे में सौ का नोट था। अगर नॉएडा जैसे महानगर में प्रेस कांफ्रेंस का यह स्तर है तो हमारे शहर में क्या होगा? हे भगवन ! किसी लीडर ने यह ख़बर ना देखी हो,वरना यहाँ तो फ़िर पाँच-पाँच,दस -दस ही लिफाफे में आयेंगें। ऐसे में तो जीना मुश्किल हो जाएगा।चैनल वाले न्यूज़ एंकर ने इस बात का खुलासा नहीं किया कि पत्रकार क्यों भड़के? केवल और केवल सौ रूपये देख कर या रूपये देख कर। वैसे जब चुनाव में खुल्लम खुल्ला रूपये लेकर खबरें छापी और छपवाई गई तो उसके बाद यही तो होना था। सब नेता जानते हैं कि ख़बर तो मालिक ने छापनी है। प्रेस कांफ्रेंस में आने वाले तो बस कर्मचारी हैं। इसलिए जो उनके दे दिया वह उनपर अलग से मेहरबानी ही तो है। इसमे इतना लफड़ा करने की क्या बात है। जिसने लेना है ले जिसने नही लेना ना ले।

राम राज्य है भाई

हाय राम ! ये लड़का। ये कोई कहानी नहीं, हकीकत है। एक लड़की के मुहं से ये शब्द तब निकले जब उसने अपनी बाइक पर एक पर्ची देखी। लड़की ने अपनी सहेली को बताया की लड़का आज फ़िर कुछ लिख कर बाइक पर रख गया। यह समस्या एक लड़की के साथ नहीं है। कुछ बनने की चाह में लड़कियां केवल ओह !,आह ! करके रह जाती हैं। क्या करियर अब हमारे सम्मान ,प्रतिष्ठा,चरित्र,स्वाभिमान से भी ऊँचा बहुत ऊँचा नहीं हो गया है?आत्म सम्मान ,मान अपमान तो अब दकियानूसी और पुराने ज़माने की बात हो गई। जिनका करियर के सामने अब कोई महत्व नहीं। किसी को बताएं तो अपमान का डर और ना बताएं तो हर रोज की प्रताड़ना।कुल्हे से नीचे गिरने को तैयार घीसी हुई जींस,पैरों में हवाई चप्पल या पट्टी वाले स्लीपर। बाल बिखरे हुए। ये वो लडकें हैं जो पैदल या बाइक पर आपको ऐसे स्थानों पर आते जाते दिखाई देंगे जहाँ लड़कियों का अधिक आना जाना होता है। ये लड़के लड़कियों का पीछा करतें हैं,उनको पीछे घूम कर देखते हैं,उन पर कमेंट्स करतें हैं,और किस्म किस्म की आवाज अपनी बाइक ने निकालते हैं। लड़कियों के निकट जाकर मुस्कुरातें हैं। लड़कियों के पास इनकी यह बदतमीजी सहने के अलावा कोई चारा नहीं होता। यह रोज होता है। अभिभावक कहाँ तक उनकी रक्षा करें? सम्भव है कुछ लड़के लड़कियों का आपस में दोस्ती का रिश्ता हो, लेकिन लड़कों की आवारा आंखों का सामना सभी लड़कियों को करना पड़ता है।कुछ बनने की चाह में लड़कियां किसी ने किसी कोचिंग सेंटर में कुछ पढ़ने जातीं हैं। कोई भी कोचिंग सेंटर ऐसा नहीं होगा जो लड़के लड़कियों को अलग अलग कोचिंग देता हो। लड़कियों को अलग कोचिंग हो तो लड़के नहीं आते। यह कोचिंग सेंटर चलाने वालों की मज़बूरी है। उनके तो बस धन चाहिए। पुलिस ने काफी हाय तौबा के बाद एक अभियान चलाकर कुछ आवारा लड़कों को पकड़ा। उनके माता पिता को थाने बुलाया और उनकी आवारा सम्पति उनको सौंप दी गई। पुलिस चाहती तो ऐसे लड़कों की फोटो अख़बारों में छपवा कर बता सकती थी,सावधान ये हैं आवारा लड़के! मगर पुलिस तो शरीफ है। वह ऐसा क्यों करने लगी। पुलिस अफसरों के परिवारों की लड़कियां तो गाड़ी में आती जाती हैं इसलिए उनकी बला से किसी और की लड़की के साथ कुछ भी हो उनको क्या! लड़कियों के परिजन मान,अपमान के डर,पुलिस के सौ प्रकार के सवाल जवाब,उनके झंझट के भय से कोई शिकायत नहीं करते। जब कोई शिकायत ही नहीं है तो शहर में राम राज्य है। नारायण नारायण।