Monday 22 February, 2016

दुविधा

3- 
दादा पिता लाहौर मेँ सब कुछ छोड़ के आए थे। इसलिये इधर था ही नहीं अधिक कुछ। दो पैसों के लिए कभी 5-10 पैसे वाले पुड़ी के पत्ते लगाता। कभी कुछ करता। एक दो बुरी बात भी थी। नगर पालिका पार्क की लाइब्रेरी के स्टोर से दरवाजे के नीचे से झाड़ू की सींक से अखबार निकाल लेते थे। करना क्या था....पार्क मेँ ही खेलते। पिता जी कारखाने मेँ काम करते थे। सर्दियों मेँ मैं अक्सर रात को वहीं सोता। एक मिस्त्री था, उन्होने रुमाल का चूहा बनाना और उसे हाथ पर चलाना सिखाया। वह आज भी बड़े शानदार ढंग से बनाना और चलाना आता है। बच्चों को बना और चला के दिखाता हूँ। स्कूल मेँ किसी मास्टर की मार तो नहीं खाई लेकिन घर मेँ माँ की जरूर खाई। माँ कहती थी, मैं कभी कभी कुछ ना कुछ गुनगुनाता रहता था। ऐसे ही कोई शब्द। बात। कुछ लाइन। मेरे दादा श्री मंगल चंद जी तीन भाई थे। श्री मांगी लाल जी और निहाल चंद जी उनके भाई थे। तीनों के मकान साथ साथ थे। पार्क के सामने। हर शाम तीनों परिवारों के पुरुष, बच्चे मांगीलाल दादा जी के जरूरु जाते। चबूतरे पर बड़ा लकड़ी का पट्टा था। वहाँ बैठते। बात चीत होती। सर्दी मेँ यह बैठक घर के बाहर वाले कमरे मेँ लगती। गजसिंहपुर मेँ दो भाई बहिन की शादी हो गई। बड़े भाई नेमी चंद गंगानगर आ गए। काम के लिये। फिर ये तय हो गया कि परिवार का गजसिंहपुर को अलविदा करने का समय आ गया...रोटी, रोजी के लिये गंगानगर जाना होगा.....

4--तो ये तय हो चुका था कि गजसिंहपुर को छोड़ना ही होगा। जहां पेट रोटी को तरस जाए, उधर कौन रहना चाहेगा। लाइन पार का पनघट। उसके पास छोटा खाला। आगे जाकर खेत मेँ बना शिवालय। गन्ने से लदी माल गाड़ी से गन्ने खींचना। मंडी से छोड़ने से पहले मोती नामक कुत्ता हमें छोड़ गया। घर के सामने वाले ने उसे दिन दिहाड़े गोली मार दी। क्योंकि एक दिन मोती ने उस पर भोंकने की गलती कर दी थी। मोती बेशक हमारा पालतू नहीं था, लेकिन उसे चौखट हमारी ही प्यारी थी। रिश्तेदार आना है, उसे ट्रेन से लेकर आना। जाना है, तो स्टेशन तक छोड़ के आना। जो दिया, वही खाया। हम स्टेशन पर आ चुके थे। बस, मोती नहीं था हमें अलविदा कहने के लिये। ट्रेन लेट थी। मैं खुश था, ट्रेन मेँ चढ़ना था। गंगानगर आना था। माँ, पिता, भाई, बहिन के चेहरे पढ़ ही नहीं पाया। आता ही नहीं था पढ़ना। परंतु आज सोचता हूँ तो वे चेहरे यकीनन उदास ही रहे होंगे। उन पर अपने भरे पूरे परिवार को, गलियों, घर को छोड़ने का रंज तो रहा ही होगा। हरियाणा के बरोदा बिटाना से बुढ़लाडा, वहाँ से लाहौर फिर गजसिंहपुर.....कैसे कैसे दिन ये दिखाई जिंदड़ी। ट्रेन का आना मेरे लिये उल्लास, खुशी और आनंद का विषय था और शायद माँ के लिये विषाद का विषय रहा होगा। हे भगवान, माँ के प्रस्थान कर जाने के बाद ही यह सब लिखने का विचार क्यों आया.....

Saturday 20 February, 2016

दुविधा

2—
शिशु की दिनचर्या जैसी होती है मेरी भी थी। रोना, सोना और दूध पीना। सरका , घुटनों के बल चला। और फिर पैरों पर। आँगन बड़ा था। दहलीज़ ऊंची थी। बाहर जा नहीं सकते थे। पाँच साल का हुआ। सरकारी स्कूल मेँ भर्ती हो गया। फेल होने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। एक कायदा, एक स्लेट और एक तख्ती, यही होता था, कपड़े के थैले मेँ। जो आजकल स्कूल बैग के नाम से जाना जाता है। स्कूल जाने से पहले और आने के बाद खेलना। वह कंचे, सिगरेट की डब्बी, गेंद, शाम को कबड्डी। पतंग उड़ाना। दूसरी, तीसरी मेँ हो गए। दादी जी प्रस्थान कर गईं। स्मृति इसलिये है कि मरने पर जो आज होता है, तब भी वैसा ही हुआ था। मैं नहीं गया था, श्मशान मेँ। गली मेँ खेल रहा था। दादा की दुकान थी। पिता कारखाने मेँ काम करते थे। एक दिन मैंने और चचेरे भाई ने दुकान से दस दस पैसे चुरालिए थे। जो होना था हुआ। पहले लाइन से उस पार स्कूल मेँ था। फिर घर के पास स्थित स्कूल मेँ लगा दिया गया। पड़ोस मेँ एक लड़के की शादी हुई। लड़का परदेश रहता था। उसकी बहू बिलकुल अनपढ़। उन्होने मुझे लिखना सिखा दिया। परदेश से जो पत्र उसके पिया जी उसे भेजते। वह मुझसे पढ़वातीं। चूंकि गली मेँ हम ही ज्ञानवान, गुणवान और राज को राज ही रखने मेँ निपुण थे, इसलिये मुझे वह पत्र पढ़ कर सुनाना होता और उसका जवाब भी लिखना होता। इसके बदले मुझे मिलते दस पैसे, कभी कभी पच्चीस पैसे। कभी पैसे की जरूरत होती तो मैं पूछ लेता, चिट्ठी आई क्या? वह सिर हिला देती। कई बार झिड़क कर कहती...नई आई रे। क्यों जान खा रहा है। काम करने दे.....दोनों उदास। वो अपने कारण और मैं अपनी दस्सी की वजह से। ये तो अब मालूम हुआ कि चिट्ठी आई होती तो मुझे तो पता लग ही जाता.....

Friday 19 February, 2016

दुविधा

कमेंट्स करने से पहले पढ़ लेना प्लीज....
55
साल के इस गोविंद के कई रूप हैं। 55 साल का बेटा, भाई है तो लगभग 25 साल का पिता भी। पति, चाचा, मामा, दादा, ससुर, दोस्त,......जैसे कितने व्यक्ति एक के अंदर गईं....साथ मेँ पत्रकार भी है...आम इंसान भी ...जिज्ञासु.......किस गोविंद का जिक्र करूँ....समझ से परे......गोविंद के प्रेम का जिक्र नहीं होता तो गोविंद की कथा अधूरी है। उलझन है, दुविधा है, लेकिन कहानी है तो शुरू करनी ही होगी। अंत कैसा होगा क्या पता? वो तो क्लाइमेक्स लिखने के बाद ही मालूम होगा। प्रेम! प्रेम तो साथ चलेगा ही।

1-55 साल पहले 16 जनवरी के दिन माँ को सुबह ही अहसास होने लगा था कि मैं आने वाला हूँ। शाम होते होते यह अहसास प्रसव पीड़ा मेँ बदल गया। दादी ने धाओ दाई को बुला लिया। गजसिंहपुर मेँ पालिका पार्क के बिलकुल निकट घर के बीच वाले कमरे मेँ शाम को 7.34 बजे मैं गर्भ गृह से बाहर आया। मैंने इस अलौकिक, दिव्य और अद्भुद सृष्टि को नजर भर देखने की शुरूआत करने की बजाए रोना शुरू कर दिया। माँ से अलग करने के लिए धाओ ने नाल काट दी। माँ प्रसव की तीव्र पीड़ा के बावजूद खुश खुश रही होगी और मैं लड़का होने के बावजूद रो रहा था। शायद पीड़ा माँ को रही थी और रो मैं रहा था। धाओ ने मुझे पोंछ कर माँ के निकट लिटा दिया। माँ देखती रही। कुछ देर बाद कानों मेँ थाली बजने की आवाज सुनाई दी। माँ बताया करती थी, तू जब पैदा हुआ तब तेरे कान छिदे हुए थे। कानों मेँ छेद थे। शायद पिछले किसी जन्म मेँ तू कोई साधू, संत था...............