श्रीगंगानगर-क्विज का सेमीफाइनल। दो बच्चों की इंटेलिजेंट टीम। आत्म
विश्वास से भरपूर। बढ़िया अंकों से फाइनल में पहुंची। दूसरे सेमीफाइनल से टीम उनसे भी अधिक अंक लेकर फाइनल
में आई। फाइनल दिलचस्प होने की उम्मीद। परंतु पहले वाली टीम का एक बच्चा डिप्रेशन
में आ गया। सिर दर्द,चक्कर। परिणाम जो मुक़ाबला दिलचस्प होना था वह एक तरफा रहा। ये क्या है? अभी से ये हाल!
छोटे से कंपीटीशन में इतना अवसाद। हार से इतना डर,घबराहट। जीत हार किसी प्रतियोगिता का ही
नहीं इस जीवन का भी प्रमुख हिस्सा है। जिंदगी के किसी मोड़ पर जीत और किसी राह पर हार। ये घटना कोई मामूली
नहीं। ऐसा लगता है जैसे वर्तमान में बच्चों से उनका बचपन छीन लिया गया हो। ये सब खुद
माता-पिता सबसे अधिक करते हैं। उसके बाद थोड़ा बहुत योगदान स्कूल वालों का भी है।
पैरेंट्स भी बेचारे क्या करें! माहौल ही ऐसा है। इसके लिए चाहे अपने ही मासूम
बच्चों की शिकायत स्कूल में क्यों ना करनी पड़े, “हाय! ये शरारती
बहुत है।“ “कहना नहीं मानता।“ “घर में दिमाग बहुत खाता है।“ हद हो गई! बच्चा शरारत तो करेगा ही। उसे नई से नई जानकारी भी चाहिए। हर किसी के
बारे में जानने की उसकी जिज्ञासा उसकी बाल सुलभ प्रकृति है। बस! पैरेंट्स चिढ़ जाते
हैं। कभी टीचर भी तंग आ जाते हैं। कारण! उनको पढ़ाई के अतिरिक्त कुछ भी तो पसंद
नहीं। घर से पढ़ते हुए जाओ। स्कूल से पढ़ते हुए आओ और आते ही फिर पढ़ो। या फिर हर वह
कंपीटीशन जीतो जिसमें भाग लेते हो। नबरों की हौड़ और रैंक की दौड़ ने बच्चों से उसकी
भवनाएं,संवेदनाएं,लड़कपन,नटखटपन,खट्टी-मीठी
शरारतें सब छीन ली। उसे एक
चलता फिरता गुड्डा/गुड्डी बना दिया गया। क्योंकि पैरेंट्स बच्चों में अपने अधूरे रहे सपने देखने लगते
हैं। अपनी इच्छा,कामना बच्चों की मार्फत पूरा करना चाहते हैं। जो
पैरेंट्स खुद ना बन सके वह बच्चों को बना अपनी कुंठा समाप्त करने की इच्छा पाल
लेते हैं। गिनती के बच्चे होंगे जिनको अपनी पसंद का विषय चुनने की छूट होती है।
बहुत कम बच्चे होते हैं जो अपनी मर्जी से रास्ते तय करते हैं। समाज की बदलती सोच
ने बच्चों को उम्र से पहले ही बड़ा कर दिया। शिशु अवस्था से सीधे जवानी। बचपन! सॉरी,समय नहीं है। इसलिए नो ब्रेक! ऐसा बड़ा भी किस काम का जो दही में ही पड़ा रहे।
ऐसे बड़े होने वाले अपनी जिंदगी का कौनसा बोझ उठाएंगे! जिसमें समाज के
साथ कदम से कदम मिलाकर चलने का तनाव होगा। पैकेज की चिंता होगी। बॉस के नित नए टार्गेट
होंगे। पैरेंट्स की इच्छा और पत्नी की अलबेली कामनाएँ होंगी। साथ में होगा
सोशल स्टेटस का दवाब। ना गली में कोई खेल रहे ना घर में कोई बच्चे। दूध पीने वाले बच्चों की
पीठ पर पिट्ठू बैग टांग स्कूल भेज कर समाज में अपने आप्क अग्रणी रखने का अहम पुष्पित,पल्लवित किया जाता
है। अब लौटना मुश्किल है। बहुत देर हो चुकी। जो बचे हैं वे भी इस हौड़ में शामिल
होने की दौड़ में अपना सुख चैन गंवा चुके हैं। इसका अंत क्या होगा समय के अलावा कौन
जानता है?
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