हर इन्सान हर पल किसी ना किसी उधेड़बुन में रहता है। सफलता के लिए कई प्रकार के ताने बुनता है। इसी तरह उसकी जिन्दगी पूरी हो जाती हैं। उसके पास अपने लिए वक्त ही नहीं । बस अपने लिए थोड़ा सा समय निकाल लो और जिंदगी को केवल अपने और अपने लिए ही जीओ।
Saturday, 30 October 2010
श्रीगंगानगर में पत्रकारिता
मोबाइल फोन की घंटी बजी...टू..न न,टू न न [ आपकी मर्जी चाहे जैसी बजा लो] । गोविंद गोयल! जी बोल रहा हूँ। गोयल जी ...बोल रहा हूँ। फलां फलां जगह पर छापा मारा है। आ जाओ। इस प्रकार के फोन हर मीडिया कर्मी के पास हर रोज आते हैं। सब पहुँच जाते हैं अफसर के बताए ठिकाने पर। एक साथ कई पत्रकार, प्रेस फोटोग्राफर,पुलिस, प्रशासन के अधिकारी को देख सामने वाला वैसे ही होश खो देता है। अब जो हो वही सही। श्रीगंगानगर में पत्रकार होना बहुत ही सुखद अहसास के साथ साथ भाग्यशाली बात है। यहाँ आपको अधिक भागादौड़ी करने की कोई जरुरत नहीं है। हर विभाग के अफसर कुछ भी करने से पहले अपने बड़े अधिकारी को बताए ना बताए पत्रकार को जरुर फोन करेगा। भई, जंगल में मोर नचा किस ने देखा। मीडिया आएगा तभी तो नाम होगा। एक साथ कई कैमरे में कैद हो जाती है उनकी फोटो। जो किसी अख़बार या टी वी पर जाकर आजाद हो जाती है आम जन को दिखाने के लिए। ये सब रोज का काम है। गलत सही की ऐसी की तैसी। एक बार तो हमने उसकी इज्जत को मिट्टी में मिला दिया । जिसके यहाँ इतना ताम झाम पहुँच गया। सबके अपने अपने विवेक, आइडिया। कोई कहीं से फोटो लेगा, कोई किसी के बाईट । कोई किसी को रोक नहीं पाता। आम जन कौनसा कानून की जानकारी रखता है। वह तो यही सोचता है कि मीडिया कहीं भी आ जा सकता है। किसी भी स्थान की फोटो अपने कैमरे में कैद करना उसका जन्म सिद्ध अधिकार है। उसकी अज्ञानता मीडिया के लिए बहुत अधिक सुविधा वाली बात है । वह क्यों परवाह करने लगा कि इस बात का फैसला कब होगा कि क्या सही है क्या गलत। जो अफसर कहे वही सही, आखिर ख़बरों का स्त्रोत तो हमारा वही है। अगर वे ना बताए तो हम कोई भगवान तो है नहीं। कोई आम जन फोन करे तो हम नहीं जाते। आम जन को तो यही कहते हैं कि जरुरत है तो ऑफिस आ जाओ। अफसर को मना नहीं कर पाते। सारे काम छोड़ कर उनकी गाड़ियों के पीछे अपनी गाड़िया लगा लेते है। कई बार तो भ्रम हो जाता है कि कौन किसको ले जा रहा है। मीडिया सरकारी तंत्र को ले जा रहा है या सरकारी तंत्र मीडिया को अपनी अंगुली पर नचा रहा है। जिसके यहाँ पहुँच गए उसकी एक बार तो खूब पब्लिसिटी हो जाती है। जाँच में चाहे कुछ भी न निकले वह एक बार तो अपराधी हो ही गया। पाठक सोचते होंगे कि पत्रकारों को हर बात कैसे पता लग जाती है। भाइयो, अपने आप पता नहीं लगती। जिसका खबर में कोई ना कोई इंटरेस्ट होता है वही हमको बताता है। श्रीगंगानगर में तो जब तक मीडिया में हर रोज अपनी फोटो छपाने के "लालची" अफसर कर्मचारी रहेंगे तब तक मीडिया से जुड़े लोगों को ख़बरों के पीछे भागने की जरुरत ही नहीं ,बस अफसरों,उनके कर्मचारियों से राम रमी रखो। इस लिए श्रीगंगानगर में पत्रकार होना गौरव की बात हो गया। बड़े बड़े अधिकारी के सानिध्य में रहने का मौका साथ में खबर , और चाहिए भी क्या पत्रकार को अपनी जिंदगी में। बड़े अफसरों के फोन आते है तो घर में, रिश्तेदारों में,समाज में रेपो तो बनती ही है। श्रीगंगानगर से दूर रहने वाला इस बात को समझाने में कोई दिक्कत महसूस करे तो कभी आकर यहाँ प्रकाशित अख़बारों का अवलोकन कर ले। अपनी तो यही राय है कि पत्रकारिता करो तो श्रीगंगानगर में । काम की कोई कमी नहीं है। अख़बार भी बहुत हैं और अब तो मैगजीन भी । तो कब आ रहें है आप श्रीगंगानगर से। अरे हमारे यहाँ तो लखनऊ ,भोपाल तक के पत्रकार आये हुए हैं । आप क्यों घबराते हो। आ जाओ। कुछ दिनों में सब सैट हो जायेगा। श्रीगंगानगर में पत्रकारिता नहीं की तो जिंदगी में रस नहीं आता। ये कोई व्यंग्य,कहानी, टिप्पणी या कटाक्ष नहीं व्यथा है। संभव है किसी को यह मेरी व्यथा लगे, मगर चिंतन मनन करने के बाद उसको अहसास होगा कि यह पत्रकारिता की व्यथा है। कैसी विडम्बना है कि हम सब सरकारी तंत्र को फोलो कर रहे है। जो वह दिखाना चाहता है वहीँ तक हमारी नजर जाती है। होना तो यह चाहिए कि सरकारी तंत्र वह करे जो पत्रकारिता चाहे। ओशो की लाइन पढो--- जो जीवन दुःख में पका नहीं ,कच्चे घट सा रह जाता है। जो दीप हवाओं से न लड़ा,वह जलना सीख न पाता है। इसलिए दुखों का स्वागत कर,दुःख ही मुक्ति का है आधार। अथ तप: हि शरणम गच्छामि, भज ओशो शरणम् गच्छामि ।
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