Tuesday, 5 October 2010

बेचारे मास्टर जी

मास्टर/मास्टरनी को किसी ज़माने में बेचारा कहा जाता था। तब से अब तक नहरों में बहुत पानी बह गया। अब मास्टर/मास्टरनी बेचारे नहीं रहे। बढ़िया तनख्वाह है। अच्छा घर चलता है। खुद सरकारी हैं लेकिन बच्चे निजी स्कूल्स में पढ़ते हैं। क्योंकि वहां व्यवस्था ठीक नहीं रहती। जब मास्टर जी अपने लाडलों को इन स्कूलों में नहीं पढ़ाएंगे तो कोई और क्यों ये रिस्क ले। लिहाजा सरकारी स्कूल्स में मास्टर/मास्टरनी को पढ़ाने के अलावा और काम करने का खूब समय मिल जाता है। अब कुछ मुश्किल होने लगा है। मास्टरजी को सत्तारूढ़ पार्टी के छोटे बढे नेताओं की चौखट पर हाजिरी देनी पड़ती है। किसी समय इनके तबादलों से नेताओं का कोई लेना देना नहीं था। अब तो विधायक या विधानसभा का चुनाव हुए नेता के परवाने के बिना तबादला नहीं होता। जिन मास्टर/ मास्टरनियों की राजनीतिक गलियारों में पहुँच थी उन्होंने अपने तबादले अपनों मनपसंद जगह करवा लिए। बाकियों को फंसा दिया। ऐसे लोग राजनीतिज्ञों के यहाँ धोक लगा रहे हैं। किसी की धोक सफल रहती है किसी की नहीं। चढ़ावे के बिना तो कोई मन्नत पूरी ही नहीं होती। राजनीति की दखल जितनी शिक्षा में है उतनी तो किसी में भी नहीं है। प्रदेश में हजारों हजार मास्टर/मास्टरनी है। इतना चढ़ावा है कि गिनती करने के लिए मशीन लगानी पड़े। नीचे से ऊपर तक सब जानते हैं। कहाँ कहाँ कौन कौन ये सब करवा रहा है, ना तो सरकार की नजर से छिपा है न अधिकारिओं की आँखों से। लेकिन होगा कुछ नहीं। जिसकी अप्रोच है वह मजे में है। जिसको तबादल के रास्ते पता है, उसको कोई टेंशन नहीं है। बाकी सब निराश होकर ऐसे बन्दों की तलाश कर रहे है जो उनका काम करवा सके, दाम लेकर। राजस्थान सरकार का एक मंत्री खुद कहता है कि पैसे देकर करवा लो मेरे बसकी बात नहीं है। इस से अधिक लिखना कोई मायने नहीं रखता। तबादले शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए नहीं होते। ये तो कमाई का जरिया है। जो मास्टर/मास्टरनी एक से दो घंटे का सफ़र करके अपने स्कूल में पहुंचेगा वह क्या तो पढ़ा पायेगा क्या देश की शिक्षा के बारे में चिंतन मनन करेगा। ऐसा तो है नहीं की जिसको जिस गाँव में लगाया है वह वहीँ रहेगा। पता नहीं सरकार कब इन मास्टर/मास्टरनियों को अपने नेताओं के चंगुल से मुक्त करेगी।

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