दर्द जो बच्चों जुदाई की तड़फ से पैदा होता है
श्रीगंगानगर-बात अधिक पुरानी नहीं है। किसी ने एक व्यक्ति
से पूछा,आजकल
आप कमजोर हो गए।व्यक्ति फूट पड़ा.......एक लड़का
शादी करके बाहर रहने लगा। उसको कोई चिंता नहीं....बात ही
नहीं करते। दूसरा बीबी के साथ यहीं रहता है। मियां-बीबी पानी भी नहीं पूछते और तो
क्या करेंगे। हम दो मियां बीबी हैं। सारा दिन काम उसके बाद अकेलापन। दूसरी बात....एक व्यक्ति
की ड्यूटी केवल अपने बच्चे के बच्चे को गोद में लेकर घूमाने की है। वो भी बहू के दिये
निर्देश के अनुसार। घर के किसी काम में उसका कोई दखल सालों
से नहीं। तीसरी बात,बच्चे बाहर सैट हो गए। बड़ा घर। सुख सुविधा का हर
सामन। जब बहू-बेटा दोनों काम करते हों और बच्चा छोटा हो तो बहू को अपनी सास पर बहुत लाड आता है। बड़े प्रेम,स्नेह,आदर और
मान के साथ उसे बड़े शहर में बुला लेती हैं। कौनसी दादी ऐसी
होगी जिसे पोते-पोती का चाव ना
हो। ऊपर से बहू -बेटे प्यार से
बुलाते हैं तो दौड़ के जाती है। बाद में पता लगता है कि बहू के लाड की वजह क्या थी?मियां
बीबी ऑफिस जाएंगे तो बच्चों की सही परवरिस करने वाली भी तो हो। आज के
जमाने में संस्कार दादी से अधिक कौन दे सकता है। खैर
अच्छी बात है। परंतु शाम होते ही दादी फिर अकेली। मियां-बीबी काम से लौटे। भोजन बन
ही चुका था। बच्चे को लेकर अपने कमरे में। सुबह जल्दी जो जाना है। ये
सच्चाई इसी समाज की है। समाज आगे बढ़ रहा है। खूब तरक्की पर है। बच्चे बहुत अधिक
ज्ञानवान,गुणवान
हैं। बड़े बड़े पैकेज ले रहें हैं। सब कुछ शानदार-जानदार-दमदार है। परंतु इन सब का
बुजुर्ग होते माँ -बाप का क्या भला हुआ। बच्चे बड़े शहर से छोटे शहर में आ नहीं
सकते। बच्चों की तड़फ माँ-बाप को बच्चों के पास बड़े शहर में ले तो जाती है तो वहां
अपनापन नहीं होता। या तो बंद घरों में बंद रहो
या फिर लौट आओ। वे लोग लौट भी आते हैं इनके पास अपनी आय का साधन है। रहने को मकान
है। सामाजिक संबंध हैं। वो क्या करें जिनके बच्चे सब कुछ बेच बचा कर बुजुर्ग
माँ-बाप को अपने साथ ले गए। शहर पर नजर दौड़ाओ। आस पास के नगरों को देखो। असंख्य
परिवार मिलेंगे इस दर्द को सहते हुए। कितना उत्साह था। बच्चा काबिल बनेगा। परिवर का नाम होगा। कितनी उमंग थी कि बच्चा
काबिल हुआ तो समाज में सिर उंचा होगा। बच्चा तो काबिल है....सिर भी
समाज में उंचा है। हाय! उस दर्द का क्या करें जो बच्चों की जुदाई की तड़फ से पैदा होता
है। उस दर्द को कैसे छिपाएं जो काबिल बच्चों की उपेक्षा से पैदा होता है और फिर जाने का नाम
नहीं लेता। वो दर्द तो जान लेवा हो जाता है जब बच्चा पैसे भेज देता है मगर खुद दर्द
बांटने के लिजे आने का नाम नहीं लेता। यह एकाकीपन बेशक अभी सार्वजनिक नहीं हो रहा।
हो जाएगा। कब तक छिपा रहेगा दर्द। कभी तो किसी की आंखों से,दिल से
फूटेगा ही।तब तक तो बहुत दूर जा चुके होंगे।
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