Tuesday, 23 April 2013

किसी को किसी की जरूरत ही नहीं रही अब



श्रीगंगानगर-इंसान को खुद के अंदर ही नहीं गली मोहल्ले तक में अकेलापन महसूस होता है। भीड़ में भी ऐसे लगता है जैसे कोई तो हो जो बात कर सके उसके मन की। बदलते परिवेश भाग दौड़ भरी दिनचर्या ने सभी को ऐसे ही किसी ना किसी मोड़ पर ला खड़ा किया हुआ है। जहां सभी है तो अकेले लेकिन फिर भी  कोई किसी का हाथ पकड़ना नहीं चाहता। आलिंगन करने की इच्छा नहीं रखता। फेसबुक पर घंटों अंजान “दोस्तों” से वार्ता कर लेगा परंतु पड़ौसी से फेस टू फेस बात नहीं होती। इस स्थिति में भी सभी खुश और मस्त दिखते तो हैं। सच में हैं कि नहीं वे खुद जाने। और हैं तो कितने हैं ये उनका दिल जानता है। बात अधिक पुरानी नहीं है। मोहल्ले में रात को एक बुजुर्ग इस संसार से प्रस्थान कर गए। सब गए सूरत दिखाई...हाथ जोड़े...कहा,कोई काम हो तो बताना। रात बीत गई। सुबह आ गई.....मोहल्ले में लगता ही नहीं था कि दो चार,पांच मकान आगे किसी घर में बुजुर्ग का मृत शरीर रखा है। अंतिम क्रिया होनी है। सब के सब अपने अपने काम में व्यस्त। घर घर की वही दिनचर्या....वही स्नान ध्यान...पूजा....मंदिर जाना....नाश्ता....सैर....कुत्ते को घुमाना....झाड़ू-पौचा....सफाई.... । किसी काम में कोई परिवर्तन नहीं। कोई समय का बदलाव नहीं। इतना ध्यान जरूर था कि इतने बजे मृत शरीर की अंतिम यात्रा शुरू होगी। उससे पहले पहले जरूरी काम निपट जाए तो ठीक रहेगा। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। कोई अंजान व्यक्ति गली में दाखिल हो तो उसे पता ही ना लगे कि गली में किसी की मौत हुई है और थोड़ी देर में संस्कार होना है। पता लगे भी तो कैसे....गली में कोई उदासी नहीं...कोई खामोशी नहीं...वही हलचल...वही बोलचाल....। वही टीवी की आवाज....गाने...मज़ाक....। ऐसा पहले नहीं होता था। गली में मौत होने पर हर घर की दिनचर्या थोड़ी बहुत बदल जाती थी। शोक महसूस होता था गली मोहल्ले में। क्या मजाल की कोई बच्चा टीवी,रेडियो की आवाज ऊंची कर दे। ठहाके तो दूर तेज आवाज में बोलना तक असभ्यता हो जाती थी। किसी महिला को मंदिर भी जाना होता तो थोड़ा छिप छिपा के। गली में घुसते ही सबके चेहरे खूब ब खुद गमजदा हो जाते। अब तो ये सब कहानी सी लगती है। साथ वाले मकान के लोग ही परवाह नहीं करते। ज्यादा हुआ तो चाय-पानी भेज दिया,ले गए...बस और क्या तो। ये बदलाव एकदम से ही हमारे सामने आ खड़ा हो गया हो ऐसा नहीं है। धीरे धीरे आया....शुरू में तो आभास नहीं हुआ....सामान्य बात लगी....अब यह बदलाव दिखने लगा...। चूंकि ये जंगल नहीं समाज है इसलिए अकेलापन सभी को कचोटता है।अभी तो क्या कचोटता है....अभी तो इस से भी अधिक एकांत के क्षण आने वाले हैं। ये क्षण...हमने खुद चुने हैं। क्योंकि हम अकेले रहना पसंद करते हैं।किसी को किसी की जरूरत ही नहीं रही।  दो लाइन पढ़ो..... रिश्ते वो जो हों काम के, बाकी सब बस सलाम के।


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