Sunday, 28 October 2012

रात को बीमार होने का हक नहीं तुझे....समझे!


श्रीगंगानगर- रात को लगभग सवा नौ बजे का समय होगा। डॉक्टर के पास रोगी को लाया गया। रोगी लंबे समय से इसी डॉक्टर से ईलाज करवा रहा था। डॉक्टर की मैडम ने दरवाजा खोलते ही कह दिया कि डॉक्टर साहब तो घर नहीं है। रोगी की हालत गंभीर...नर्सिंग होम पहुंचे...कोई फायदा नहीं....दूसरे हॉस्पिटल आए...नर्सिंग स्टाफ ने जांच कर डॉक्टर से बात की....डॉक्टर ने उसे दूसरे के पास जाने की सलाह दी। नर्सिंग स्टाफ क्या करता! उसने रोगी के परिजनों को बता दिया। गंभीर रोगी को फ़र्स्ट एड देने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। वह कोई वीआईपी थोड़े था।  तीसरे डॉक्टर के पहुंचे। वह भी नहीं....आखिर किसी को फोन करके एक नर्सिंग होम संचालक से आग्रह  किया गया। उसने बहुत बड़ा अहसान करते हुए ईलाज शुरू किया। किसी डॉक्टर को इस बात का अंदाजा कि इस पूरी प्रक्रिया में रोगी के परिजनों के दिलों पर क्या बीती होगी? जीवन-मौत तो ईश्वर के हाथ है लेकिन डॉक्टर कुछ प्रयास तो करे। किसी ने कहा हमारे यहां ये सुविधा नहीं। किसी ने बोल दिया डॉक्टर नहीं। आदमी मरे तो मरे डॉक्टर का क्या जाता है! रात को किसी आम आदमी के लिए ना तो डॉक्टर आएगा। ना मरते हुए इंसान को कोई फर्स्ट एड देने की कोशिश होगी। क्योंकि साधारण परिवार के किसी व्यक्ति को रात को गंभीर बीमार होने का हक है ही नहीं।  किसने दिया उसे यह हक ? नहीं होना चाहिए उसे बीमार। वह ऐसी क्या चीज है जो वह रात को बीमार हो, वह भी गंभीर। उसे शर्म आनी चाहिए। इस नगर में रात को बीमारी की बजाए उसे शर्म से डूब मरना चाहिए। वह क्या समझता कि उसकी बीमारी से किसी डॉक्टर का दिल पसीजेगा! कोई उसके परिजनों के दर्द को समझेगा! नर्सिंग होम के दरवाजे उसके ईलाज  के लिए खोल दिये जाएंगे! रात को कोई क्यूँ करे उसका ईलाज । उसकी अहमियत ही क्या है इस क्षेत्र में। उसको जीने का हक ही किसने दिया....बीमार हो जाए रात को और मर जाए ईलाज के अभाव में। हमें क्या? हम तो नहीं करेंगे ईलाज। ईलाज! अरे! हम तो फ़र्स्ट एड भी नहीं देंगे। कौनसी इंसानियत?..दया...फर्ज.... । अजी छोड़ो जी, ये सब किताबी बातें हैं। हम केवल वही किताब पढ़ते हैं जिसकी जेब में दाम हो....खूब नाम हो....प्रतिष्ठित व्यक्ति हो.....बड़ा अफसर हो.... । आम आदमी....उस पर रात को गंभीर बीमार....उसको कहा किसने था रात को बीमार होने के लिए। रात को कोई नर्सिंग होम का डॉक्टर रिस्क नहीं लेता। कुछ हो गया तो तोड़ फोड़ का अंदेशा। बस यही एक तर्क है डॉक्टर के पास। सही भी है ये बात, किन्तु इसका यह मतलब तो नहीं कि हर मरीज के परिजन हाथों में पत्थर लिए नर्सिंग हॉस्पिटल आते हैं ईलाज करवाने। अफसोस तो ये कि इनसे पूछने की हिम्मत कौन करे? अभी ये हाल है।उसके बाद तो पता नहीं क्या होगा। जो भी हो किन्तु आम आदमी रात को गंभीर बीमार ना हो। उसे रात को बीमार होने का हक ही नहीं है। एक शायर ने कहा है....पस्त हौसले वाले तेरा साथ क्या देंगे,ज़िंदगी इधर आ तुझ को हम गुजारेंगे।



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