Thursday, 4 October 2012

कपड़ों और सूरत से नहीं होती इंसान की पहचान


श्रीगंगानगर-एक परिचित विप्रवर को घर छोड़  गया। विप्रवर भी क्या! आज के सुदामा से कुछ बीस लगे। बुजुर्ग पतले दुबले । दांत थे भी और नहीं भी। हल्की सफ़ेद दाड़ी। बाल बिखरे हुए। कलाई पर घड़ी। जिसका फीता इससे पहले पता नहीं कब बदला होगा। उसका वास्तविक रंग फीका पड़ बे रंग का हो चुका था। धागे निकले हुए थे।  कमीज-धोती थी तो साफ लेकिन झीनी ।गज़ब की फुर्ती। आते ही  नंगे पैर बाथरूम में गए। वापिस आए, हाथ पैर धोए। आसन बिछा था बैठ गए। मन में  भाव उमड़े  कि ये किस पंडित को छोड़ गए वो.....। इससे पहले कि सोच आगे बढ़ती...विप्रवर ने अपने  अनुभव से मेरे चेहरे  और मन के भाव पढ़ लिए। विप्रवर बोले,रिटायर्ड टीचर हूँ। 1960-61 में लगा था नौकरी। मन के भाव,विचार सब बदल गए साथ में चेहरे का रंग भी । वे बताने लगे...1300 रुपए  पेंशन मिलती है।क्योंकि हमारे जमाने में तनख़ाह कम ही हुआ करती थी। जिस चेहरे पर  कुछ देर पहले दीन-हीन जान तरस आ रहा था उसके प्रति अब श्रद्धा हो गई। उनकी बातों में रस आने लगा। भोजन करते हुए वे बोले,हिन्दी और गणित पढ़ाया करता था। अब तो गणित बहुत मुश्किल हो गया। बच्चों को ना तो हिन्दी की ग्रामर आती है ना अंग्रेजी की। इसी वजह से उनके नंबर कम आते हैं। भोजन की तारीफ के साथ उनके अनुभव का ज्ञान भी मिल रहा था। वे बताने लगे, सिरसा के एक सेठ की सिफ़ारिश पर श्रीकरनपुर गया नौकरी लेने। तहसीलदार पटवारी लगाना चाहता था। लेकिन मेरी इच्छा मास्टर लगने की थी। तहसीलदार ने बहुत कहा,पर मैं मास्टर ही लगा। कुछ समय पहले जो दीन हीन लग रहा था वह ज्ञान और अनुभव से घनवान था।अपने अंदर आशीर्वादों का भंडार लिए हुए था वह बुजुर्ग विप्रवर। यह सब लिखने का अर्थ केवल उस विप्रवर की तारीफ करना नहीं है। बल्कि इस बात का जिक्र करना है कि इंसान की सूरत,कपड़े और उसके साधन देख कर  ही समाज उसके बारे में अपनी राय कायम कर लेता है। जैसा पहनावा और सूरत वैसी ही उसको तवज्जो मिलती है। यह कोई आज नहीं हो रहा। सदियों से ऐसा ही है। हर युग में इन्सानों ने सूरत, कपड़ों और धन को केंद्र में रख दूसरे इंसान को महत्व दिया। इंसान की सूरत कैसी भी हो, कपड़े चाहे जैसे हों, धन है या नहीं लेकिन उसने अपनी मधुर वाणी, अपने ज्ञान और अनुभव से, अपनी बड़ी सोच से, किसी के व्यक्तित्व को पहचाने के इस माप दंड को हर बार गलत भी साबित किया। जैसे आज इस विप्रवर ने किया। जाते हुए पंडित जी ने संस्कृत में एक श्लोक बोला...जिसका अर्थ था कि पद और पैसा तो ठीक  है किन्तु हर बार फलित तो भाग्य ही होता है। ये कह वे अपनी साइकिल पर सवार हो चले गए। ये संकेत उन्होने अपने लिए दिया या हमारे लिए वही जानें। शायर मजबूर कहते हैं...दिल है पत्थर,दिल है मोम भी मजबूर,दिल पर हर चोट के निशां होते हैं। 

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