श्रीगंगानगर-ये मुर्दों का शहर है। यहां बोलना
मना है। अपने आप को जिंदा साबित करने के लिए जुबां खोलोगे तो मुर्दा बना दिये
जाओगे। इसलिए जिंदा रहना है तो मुर्दों की
तरह रहो। मुर्दा रहोगे तो जिंदा रहने की हसरत पूरी होती रहेगी। वरना मुर्दों में
शामिल होने में एक क्षण भी नहीं लगेगा। शहर में कोई ये कहने वाला भी नहीं होगा कि
कोई जिंदा भी है। कहेगा कौन? सब के सब मुर्दे जो हैं। और मुर्दे कभी बोला
नहीं करते। समझे! जिंदा हो तब भी मुर्दा रहो। क्योंकि ये मुर्दों का शहर है। यहां
ज़िंदों का कोई काम नहीं। कोई नाम नहीं। इसका अपना चलन है। यहां आपको अतिरिक्त रूप
से कुछ नहीं करना। आंखों को उतना ही देखने की इजाजत देना जितना जिंदा मुर्दा बने
रहने की जरूरत हो। ध्यान रहे मुर्दा ना देखता है,ना सुनता है और ना ही
बोलता है। मुर्दा बस केवल मुर्दा है...केवल मुर्दा। पड़ा रहता है वहां जहां उसे पटक दिया
जाए। रख दिया जाए। उस पर किसी मौसम का कोई असर नहीं पड़ता। महंगाई,भ्रष्टाचार,जुल्म,अन्याय,प्रताड़ना,उपेक्षा,मजबूरी,लाचारी,बेबसी,गरीबी.....जैसी सभी लानतों,बीमारियों का इससे कोई नाता नहीं है। न तो ये
उसकी सेहत पर असर डाल सकती हैं ना वह इनकी परवाह करता है। क्योंकि मुर्दों में कोई
संवेदना नहीं होती। भावना नहीं होती। बे भाव के होते हैं मुर्दे। वे ना देख सकते
हैं। ना बोल सकते है और ना सुन सकते हैं। जड़ होते हैं वे। बस तुम इन शहरी मुर्दों
में शामिल हो जाओ। वैसे तो मुर्दों में अकड़ होती है। लेकिन इस शहर के मुर्दे नायाब
हैं। इनमें अकड़ नहीं है। हो भी कहाँ से! ये बिना रीढ़ के जो हैं। बिना रीढ़ के ये
सचमुच के मुर्दे हैं। बस तुम्हें ऐसा ही बन कर रहना है। ठेठ गंगानगरी मुर्दा।
जिसकी जय जय कार ये करें,तुम भी करो। ये हार पहनाएं तुम ताली बजाओ।
जिसको हीरो बनाए,उस पर तुम फूल चढ़ाओ। जिसके ये चरण पखारें तुम
उन तलवों को चाटो......अबे चुप! मुर्दों का आत्म सम्मान,स्वाभिमान,नहीं होता। वो मुर्दा है। एक दम खालिस मुर्दा।
इसलिए जो बड़े मुर्दे करते हैं तू उनको फॉलो कर। संभव है तुझे ज़िंदों को मुर्दा बनाने
वाली टोली में शामिल कर लिया जाए। तेरी पहचान हो जाए खास मुर्दों से। मुर्दों में
सबसे अधिक सहन शक्ति होती है। मुर्दा दुख,सुख,मान,अपमान,चोट, से ऊपर उठ चुका होता है। शहरी मुर्दों में यह अधिक होता है। इसलिए याद
रखना मुर्दों में जिंदा बनने की कोशिश करके तू मुर्दों की जमात को लजाना मत। उनमें
विद्रोह की भावना पैदा मत करना। किसी को बताना भी मत कि तुम जिंदा हो। मुर्दा
रहोगे तो जिंदा रहोगे। इसलिए इस शहर में अपने आप को जिंदा साबित करने की जिद छोड़,चल मुर्दा हो जा। बाकी
लोगों की तरह। डॉ रमेश अग्रवाल की लाइन हैं....मेरा गम बांट कर लोगों
में वो करते हैं काम ऐसे,यहां रो रोके सुनते हैं वहां हंस कर उड़ाते हैं।
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