संवेदनशील कवि की दो लाइन से बात आरम्भ करते हैं-प्रश्नोत्तर चलते रहे,जीवन में चिरकाल,विक्रम मेरी जिन्दगी,वक्त बना वेताल। ये पंक्तियां देश के आम आदमी को समर्पित हैं। उस आदमी को जिसे मैं तब से जानता हूँ जब से अखबार पढना शुरू किया था। आम आदमी!मतलब,जो किसी को नहीं जानता हो और कोई खास आदमी उसको ना पहचानता हो। अपने काम से काम रखने को मजबूर। ना साधो से लेना न माधो का देना। पीपली लाइव के नत्था से भी गया गुजरा। इसी फिल्म के उस लोकल पत्रकार से भी गया बीता। जिसकी मरने के बाद भी पहचान नहीं होती। देश के न्यूज़ चैनल्स में तो यह लापता है, हाँ कभी कभार प्रिंट मीडिया के किसी कौने में जरुर इसके बारे में पढ़ने को मिल जाता है। इन दिनों ऐसे ही एक आम आदमी से साक्षात मिलने का मौका मिला। जिस पर एक कवि की ये लाइन एक दाम फिट है--एक जाए तो दूसरी मुश्किल आए तुरंत,ख़त्म नहीं होता यहां इस कतार का अंत।
आम आदमी ने अपना कर्म करके कुछ रकम जोड़ी, पांच सात तोला सोना बनाया। सोचा, घर जाऊंगा ले जाऊंगा। परिवार के काम आयेंगे। बहिन की शादी में परेशानी कम होगी। घर जाने से पहले ही चोर इस माल को ले उड़ा। थाने में गया, परन्तु मुकदमा कौन दर्ज करे? चलो किसी तरह हो गया तो चोर के बारे में बताने,उसे पकड़ने की जिम्मेदारी भी इसी की। घर में इतना सामान क्यों रखा? इस बारे में जो सुनना पड़ा वह अलग से। मोहल्ले वालों ने बता दिया। इस बेचारे ने समझा दिया। पुलिस पुलिस है, समझे समझे,ना समझे ना समझे। बेचारा आम आदमी क्या कर सकता है। जिस पर शक है वह मौज में है। इसी मौज में वह वहां चला जायेगा जिस प्रदेश का वह रहने वाला है। आम आदमी अब भी कुछ नहीं कर पा रहा बाद में भी कुछ नहीं कर पायेगा।
पेट काट कर सरकारी कालोनी में भूखंड लिया। सोचा मकान बना लूँ। बैंक आम आदमी के लिए होता है। यह सोचकर वह वहां चला गया उधार लेने। किसी ने एक लाख उधार पर साढ़े तीन हजार मांगे किसी ने तीन हजार। कोई जानता नहीं था इसीलिए किसी ने उसकी सूनी नहीं, मानी नहीं। यह रकम देनी पड़ी। लेकिन मकान का निर्माण इतनी आसानी से तो शुरू नहीं हो सकता ऐसे आदमी नक्शा बनना पड़ेगा। वह पास होगा। तब कहीं जाकर आदमी मकान की नीव भर सकता है। सरकारी कालोनी थी। कब्ज़ा पत्र लिया था। वह गुम हो गया नक्शा पास करवाने की जो फाइल ऑफिस में थी वह ऑफिस वालों से इधर उधर हो गई। सरकारी,गैर सरकारी जितनी फीस लगती है उससे डबल फीस देनी पड़ी। अब यह क्या जाने की किस काम के कितने दाम लगते हैं। कई दिन तक घर ऑफिस के बीच परेड होती रही, काम नहीं हुआ। होता भी कैसे आम आदमी जो ठहरा। उस पर आवाज ऐसी मरी मरी जैसे कोई जबरदस्ती बुलवा रहा हो। यह तो उसकी कई दिनों की कहानी है। टटोले तो अन्दर और भी दर्द हो सकते हैं। मगर हमें क्या पड़ी है। ऐसे आदमी का पक्ष लेने की जिसको कोई नहीं जानता। उस से जान पहचान करके भी क्या फायदा! देश में पता नहीं ऐसे कितने प्राणी है जो इस प्रकार से अपने दिन कटते हैं। इसके लिए तो यही कहना पड़ेगा--कैसे तय कर पायेगा, वो राहें दुशवार,लिए सफ़र के वास्ते, जिसने पाँव उधार। नारायण नारायण।
1 comment:
aam aadmee kee dukh kee rug ko aapne bakhoobee pakdaa hai.........
marmik chitrn.......
mai blog se kafee dino door rahee.......poora padne ka prayas hai.......
Post a Comment