घरों की छतों पर कपड़े सुखाती ,मसालों,अनाज के धूप लगाती हुई औरतें पड़ौसी महिलाओं से बात कर लिया करती थी। नई दुल्हन इसी प्रकार पड़ौस की बहुओं से इसी माध्यम से जान पहचान करती। बात बात में नए रिश्ते बन जाते। किसी यहां जंवाई आता तो गली की कई लड़कियां जीजा-जीजा कहती हुई पहुँच जाती ठिठोली करने। किशोर वय तक हम उम्र लड़के लड़कियां खेलते रहते गली में,एक दूसरे के घर। रिश्तों की सुचिता,प्रेम और भाईचारे की महक से गली मौहल्ला महका करता था। एक का सुख सभी का होकर कई गुणा बढ़ जाता और एक का दुख दर्द बंट कर कम हो जाता।
अपनेपन की वो मिठास,स्नेह और विश्वास अब कहां है। क्या मजाल की आप पड़ौसी के किसी बच्चे को उसकी किसी गलत हरकत पर डांट सको! अब तो अपने बच्चों को डांटने की हिम्मत नहीं होती। अपने बच्चे की गलती पर भी मन मसोस कर रहना पड़ता है पड़ौसी के बच्चे की तरफ तो देखने का रिवाज ही नहीं रहा। घर की बहू अब पड़ौसी की बहू को आते जाते देख सकती है। घर की छत पर उससे मिलना असंभव है। छतों की दीवारें बहुत बड़ी हो गई और हमारी सोच छोटी...हमारे कद से भी छोटी। आज दूसरे की छत की ओर झाँकने में भी शंका आती है...कोई देख ना ले...कोई हुआ तो क्या सोचेगा?जंवाई के आने पर गली की लड़कियों का आना अब नामुमकिन है। गली में लड़के लड़कियों का साथ खेलना......तौबा तौबा...क्या बात करते हो। अब तो बात करते ही बतंगड़ बनते ,बनाते देर नहीं लगती। वातावरण दूषित हो गया किसी को दोष देने का क्या मतलब।
यह कोई किसी एक परिवार,गली,मौहल्ले या शहर की बात नहीं है। सभी स्थानों पर सभी के साथ ऐसा ही होता है। पता नहीं हवा में कुछ ऐसा घुल गया या खान पान का असर है। या फिर प्रकृति की कोई नई लीला। कहते हैं अब गन्ने में पहले जैसी मिठास नहीं रही और ना सब्जियों में वो ताजगी भरा,तृप्त कर देने वाला स्वाद।लेकिन क्या हमारे आपसी रिश्तों में हैं ये सब....जब रिश्तों में नहीं तो हम फिर इनमें क्यों खोजते हैं।
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