श्रीगंगानगर-श्रीगंगानगर
में किसी नागरिक को रहना है तो अपनी रिस्क पर रहे। पुलिस से किसी प्रकार की कोई
उम्मीद ना करे। आप के साथ कोई भी जुल्म हो
आपका यही फर्ज है कि चुपचाप सहन करो और घर चले जाओ। चोरी हो गई...ईश्वर का प्रकोप
समझ कर चुप रहो। रास्ते में किसी ने लूट लिया....किसी से मत कहो....ये सोच कर अपनी राह पकड़
लेना कि बुरा समय आया था। बाइक चोरी
हो गई...पैदल चलना शुरू करो या हैसियत हो तो दूसरी ले आना....थाना जाओगे,रिपोर्ट करोगे तो मन को और अधिक पीड़ा होगी। किसी ने राह चलते मार
पीट कर ली तो दूसरा गाल भी आगे करने का गांधीवादी फर्ज अदा करना। किसी
घटना...अपराध....की सूचना भूल कर भी पुलिस को मत देना...वरना ऐसी मुसीबत आएगी कि
पूरा घर टेंशन में रहेगा....फिर भी जान छूटेगी क्या गारंटी है। मोहल्ले में
लड़कों का जमघट है....बाइकर्स का डर है तो घर के दरवाजे बंद कर लो या फिर मोहल्ला
बदल लो....पुलिस को गलती से भी ना बताना....ये लोग रोज और अधिक
परेशान करेंगे आपको। ये स्थिति इस शहर की जो है महाराजा गंगा सिंह जी ने बसाया था।
कहते हैं कि उनके राज में ना तो अन्याय था और ना अपराध। वे कोई डंडा लेकर थोड़ा ना
घूमते थे हर गली में...बस उनके राज का डर था। उनके ही शहर में आज भी डर
तो है लेकिन या तो पुलिस का या असामाजिक तत्वों का। हैरानी की बात है कि असामाजिक
तत्वों को पुलिस का कोई डर नहीं। ये लोग कहीं भी
कभी भी कुछ भी कर सकते हैं। थाना चले जाओ...न्याय नहीं मिलेगा। हां,पंचायती से फैसला जरूर करवा देंगे। जी, इसके दाम तो देने ही पड़ेंगे। आदमी सोचता
है...पैसे लग गए जान तो छूटी। कई बार तो ऐसा लगता है जैसे थाना से लेकर एसपी ऑफिस तक
सब कुछ बड़े बड़े सेठों के यहां गिरवी रख दिया गया है। जन सहयोग के नाम से थाना और कई अधिकारियों
के दफ्तरों में जो सुविधा है वह इनके ही द्वारा ही तो उपलब्ध करवाई जाती हैं। या
अधिकारियों द्वारा ली जाती हैं।जब कोई किसी से कैश या काइंड अथवा सामान लेकर
ओबलाइज हो गया तो उसकी नजर तो झुक ही जाएगी ना। स्वाभाविक है ये बात। उसके बाद फिर
पुलिस में किसकी चलेगी! आम आदमी थाना में जाने से पहले सिफ़ारिश की तलाश करता है। ताकि
सुनवाई हो सके। कोई भी पीड़ित अकेला नहीं जाता...चला भी गया तो उसके साथ
जो कुछ होता है वह किसी को बताए तो विश्वास ही ना करे। तो जनाब ये शहर जरूर
महाराजा गंगा सिंह जी ने बसाया है...लेकिन अब राज उनका नहीं है। इसलिए यहां रहना है तो अपना जमीर,स्वाभिमान,आत्मसम्मान गटर में डाल दो। जो होता है होने दो.....ये सोच कर कि भगवान की
यही मर्जी है। जिनके लिए पुलिस प्रशासन काम कर रहा है वह उनको करना चाहिए। वो आपके
लिए है ही नहीं। जिनके हैं ए है उनके लिए हैं। इसलिए उनको बुरा भला कहने से कोई
फायदा नहीं...कहोगे तो अपनी ही सेहत खराब करोगे।
हर इन्सान हर पल किसी ना किसी उधेड़बुन में रहता है। सफलता के लिए कई प्रकार के ताने बुनता है। इसी तरह उसकी जिन्दगी पूरी हो जाती हैं। उसके पास अपने लिए वक्त ही नहीं । बस अपने लिए थोड़ा सा समय निकाल लो और जिंदगी को केवल अपने और अपने लिए ही जीओ।
Sunday, 14 July 2013
Friday, 5 July 2013
माता-पिता दुश्मन तो नहीं होते बच्चों के
श्रीगंगानगर-सुबह
का सुहाना समय। एक घर से लड़का बाइक लेकर निकला। किताबों का पिट्ठू बैग था।
वह होगा कोई 15 साल का। मूंछ की हल्की सी लाइन बता रही थी कि लड़का जवानी
की तरफ कदम बढ़ा रहा है। भले और अच्छे घर के इस किशोर लड़के के पीछे उसके
पिता आए। आवाज लगाई....थोड़ा पीछे गए.....उसे रोका.....जादू की झप्पी देने
की कोशिश की। लड़के ने हाथ पीछे कर दिया और बाइक लेकर स्कूल चला गया। पिता
देखता रहा उसे दूर जाते हुए। पिता मायूस चेहरे के साथ घर आ गया। यह दृश्य
बता रहा था कि घर में कुछ ऐसा हुआ जिससे लड़का नाराज हो गया। पिता होता ही
ऐसा है कि पीछे आया उसे मनाने को। लेकिन आज के बच्चे!...कमाल है। पुराना
समय होता तो पिता एक देता कान के नीचे.....अब समय बदल गया है। थोड़ी उम्र
क्या ली बच्चों ने माता-पिता दुश्मन हो जाते हैं उनकी नजर में। दुश्मन भारी
शब्द है तो इसकी जगह कुछ और लिख लो बेशक ....लेकिन सच्ची बात तो यही है।
खैर, ये बात बेशक सड़क के एक दृश्य की है। परंतु घरों के अंदर ऐसा रोज होता
है। बच्चे माता पिता की किसी भी प्रकार की टोका-टाकी को अपने अधिकारों का
हनन समझ लेते हैं। वे यूं रिएक्ट करते हैं जैसे माता पिता ने उनको कुछ
निर्देश या आदेश देकर जुल्म कर लिया हो। वो भी ऐसे बच्चे जो पूरी तरह अपने
माता-पिता पर निर्भर हैं। जिनके पास घर की आर्थिक स्थिति के अनुसार हर
सुविधा है। बड़े स्टेटस वाला स्कूल। ड्राइविंग लाइसेन्स बेशक ना हो आने जाने
के लिए महंगी बाइक जरूर होगी। नए जमाने का वो मोबाइल....जिसका नाम भी मुझे
नहीं लिखना आता। चकाचक ड्रेस और बढ़िया पॉकेट खर्च। फेसबुक लिखना तो भूल ही
गया। इनमें से कुछ उसकी जरूरत है और कुछ नहीं भी। इसके बावजूद बच्चों के
पास वह होता है। क्योंकि कोई भी माता पिता ये नहीं चाहता कि बच्चे को कोई
कमी महसूस हो। यह सब तो बच्चों को देने का फर्ज माता-पिता का है। परंतु कुछ
कहने का हक उनको बिलकुल भी नहीं है। वो जमाना और था जब यह अधिकार
माता-पिता तो क्या चाचा,ताऊ और पड़ौसी तक को हुआ करता था। अब तो घर में
बच्चों के साथ रहना है तो मुंह बंद करके रहो। घर घर में बड़े अपने बच्चों के
चेहरे पढ़ते हुए दिखाई देते हैं। खुद का मूड चाहे कैसा भी हो बच्चों के मूड
की चिंता अधिक रहती है। पता नहीं आज कल के माता-पिता को संस्कार देने नहीं
आते या बच्चों को इनकी कोई जरूरत ही नहीं रही। जो बच्चे ऐसे हो रहे हैं।
वे अपनी दुनिया अलग ही बसा रहे हैं। उस दुनिया में माता-पिता का प्रवेश तो
वर्जित है ही साथ में किसी भी प्रकार की टोका टाकी भी प्रतिबंधित है।
प्रकाश की गति से भी तेज चल रहा समय और क्या क्या रंग दिखाएगा पता नहीं।
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