Tuesday 25 December, 2012

कांस्टेबल सुभाष चंद के लिए इतनी खामोशी क्यों?


श्रीगंगानगर-गैंग रेप के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में आंदोलन हुए। छपास के रोगियों को काम मिल गया। जिसने कभी अपने शहर में महिला से हुई ज्यादती के खिलाफ आवाज नहीं उठाई वह विज्ञप्ति जारी कर गैंग रेप के दोषियों की मांग करने लगा। कैन्डल मार्च। भाषण बाजी। किसी स्कूल में तो कभी सड़क पर,हर तरफ एक ही बात दिल्ली का गैंग रेप। लेकिन कांस्टेबल सुभाष चंद की मौत पर सभी चुप हैं। मालूम नहीं ना यह कौन है? सुभाष चंद दिल्ली पुलिस का वह कांस्टेबल है जो दिल्ली के इंडिया गेट पर हुए दंगे में घायल हुआ। जिसकी आज सुबह मौत हो गई। तब से अब तक बारह घंटे हो गए किसी ने उसको सलाम तक नहीं बोला। सोशल मीडिया पर दामिनी के लिए पोस्ट लिख लिख कर अपने आपको महिलाओं के पक्षधर साबित करने वाले। जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने का दम भरने वाले,इस मौत पर कुछ नहीं बोल रहे। गैंग  रेप ने दिल्ली पुलिस को शर्मिंदा किया था तो सुभाष चंद की मौत ने आंदोलनकारियों को भी थोड़ा बहुत तो शर्मिंदा किया ही होगा। सुभाष चंद्र किसी का पति था। किसी दामिनी का पिता था। भाई था। रिश्तों में सुभाष चंद वह सब था जो हम और आप हैं। उसके परिवार और रिश्तेदारों  के साथ भी तो अन्याय हुआ है। न्याय की बात करने वालों को अब क्या हो गया? क्यों नहीं न्याय की मांग कर रहे? सुभाष चंद ने तो कोई ऐसा काम नहीं किया जिसकी सजा उसको मिली। वह तो केवल डयूटी कर रहा था अपनी। अब क्यों दिल्ली चुप्प है? खामोशी क्यों हैं दूसरे उन शहरों में जो दामिनी के लिए सड़कों पर उतर आए थे? दामिनी: के लिए जलायी गई कैन्डल बुझा क्यों दी गई? न्याय तो सभी को मिलना चाहिए। ये तो हो नहीं सकता की दामिनी के लिए न्याय कुछ अलग किस्म का है और सुभाष चंद के लिए दूसरे प्रकार का। हमने तो यही पढ़ा है की न्याय बस न्याय होता है। वह ना तो उम्र देखता है ना कोई रंग रूप।  वह किसी से वर्ग भेद भी नहीं करता और उसकी नजर में गरीब,अमीर,महिला,पुरुष,सरकारी,गैर सरकारी सब एक समान हैं। जब न्याय सबको बराबरी का हक देता है तो फिर न्याय के लिए आवाज बुलंद करने वाले सुभाष चंद के नाम पर चुप्प क्यों हो गए। उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकल रहा। ना तो वे   दामिनी को जानते थे और ना ही सुभाष चंद को। उन्होने तो एक घिनोने कांड के खिलाफ आवाज उठाई। जन जन को जागृत किया।  इनके लिए सब एक समान। फिर न्याय के लिए उठाई मशाल से अब न्याय की रोशनी की तरफ बढ़ते कदम क्यों रुकने लगे हैं? तो क्या दामिनी के लिए हुआ आंदोलन क्षणिक आवेश था। युवाओं का आक्रोश था। जो दिल्ली पुलिस की पानी की बोछारों से ठंडा हो गया। तो क्या अब कभी किसी जुल्म के खिलाफ आवाज नहीं उठेगी? हैरानी है इस सोच पर। युवाओं के जज्बे पर। आंदोलन के मूड पर। दामिनी के साथ घोर अन्याय हुआ है तो अन्याय सुभाष चंद के परिवार के साथ भी हुआ ही है। उसको सलाम कहने का फर्ज तो बनता ही है। हर समय पुलिस को कोसते हैं आज तो सुभाष चंद के परिवार का जय हिन्द सुनने का हक है। याद हमने दिला दिया। बाकी मर्जी आपकी। 

Sunday 23 December, 2012

अपने नगर में क्या होता है वह तो दिखता नहीं .....


श्रीगंगानगर-दिल्ली की घटना से पूरे देश में आक्रोश है। गुस्सा है। नाराजगी है। हल्ला है। चर्चा है। देश भर की पुलिस अपने आप को लड़कियों के प्रति और चौकस हो जाने के दावे और कोशिश कर रही है। बच्चे,युवा,महिला संगठन,स्कूल,स्कूल,कॉलेज,राजनीतिक,सामाजिक,धार्मिक संगठन अपनी अपनी तरह से प्रदर्शन कर घटना के प्रति अपनी भावना प्रकट कर  रहे हैं। बड़े मीडिया घराने  भी खबर के लिए कई बार ऐसा करवा लेते हैं। बड़ी घटना हो तो तो फिर ये सब होना स्वाभाविक है। यही हिंदुस्तान की खासियत है। ऐसा ही है देश के लोगों का मिजाज । किसी भी बड़ी घटना पर हर कौने से एक ही आवाज सुनाई देती है। एक सी भावना महसूस होती है। जन जन ऐसी घटना के खिलाफ पूरी ताकत से खड़ा हो आवाज बुलंद करता है। ये सब करने वालों को सलाम। होना भी यही चाहिए। जुल्म के खिलाफ हल्ला  बोलना वक्त की जरूरत है। लेकिन हैरानी इस बात की है कि किसी को भी अपने अपने शहर में हर रोज लगभग हर सड़क पर लड़कियों से होने वाली छेड़-छाड़ ना तो दिखाई देती है और ना वे कमेंट्स सुनाई देते हैं जो लड़के आती जाती लड़कियों पर करते हैं। आतेजाते लड़की का  पीछा करते  लड़कों को नजर अंदाज कर देता है हर कोई। बस,वह  ये जरूर देखता है कि जिसके पीछे लड़के लगे हैं वह लड़की उसके अपने परिवार की तो नहीं। सड़क पर इस प्रकार के लड़कों के कमेंट्स को सुन नजर झुका कर अपनी राह जाती बेबस लड़की भी किसी को नहीं दिखती। ना उनको उसके चेहरे पर लड़कों का खौफ दिखता है। ना शर्म से झुकी उनकी गर्दन और आँख। दिखे भी तो कैसे उनकी खुद की नजर ऐसा दृश्य देख इधर-उधर हो जाती है। आवारा लड़के लड़कियों का पीछा ऐसे करते हैं  जैसे जंगल में कई शेर किसी अबोध हिरनी का शिकार करने दौड़ते हैं। जो संगठन और लोग दिल्ली की घटना से उद्वेलित हैं वे अपने शहर का क्यों नहीं सोचते! हम लोग कोई बड़ी घटना होने पर ही घरों से बाहर क्यों निकलते हैं? छोटी छोटी छेड़-छाड़,छींटा-कसी की घटना को पहले ही स्तर पर रोका जाए। उसके खिलाफ आवाज उठाई जाए। लेकिन सब के सब मजबूर हैं। समय ही ऐसा है। जिसके पक्ष में कोई बोलेगा वह तो साइड में हो जाएगा और स्यापा हो जाएगा उसके साथ जो बोलेगा। कितने परिवार हैं जो इस प्रकार के लड़कों से दो दो हाथ करते हैं? अधिकांश परिवार डरते हैं। लड़कों से भी और अपनी इज्जत से भी। उनका डर किसी हद तक जायज भी हैं। ऐसे मामले  में लड़कों के खिलाफ कोई आएगा नहीं। संभव है लड़के फिर उस लड़की और लड़की के परिवार का जीना हराम कर दें।  किसी को इस बात पर एतराज नहीं हो सकता कि लोग दिल्ली की घटना के प्रति इतने संवेदनशील क्यों हो रहे हैं? अफसोस,आक्रोश की वजह ये कि यह सब होता ही इसलिए है कि आम जन चुप्प रहता है। संगठन केवल बड़ी घटना का इंतजार करते हैं। जब पानी सिर से ऊपर गुजर जाता है तो देश भर में मच जाता है हल्ला।

Wednesday 19 December, 2012

सुनो!चलने के लिए सड़क तो खाली छोड़ दो....



श्रीगंगानगर-ढाई दशक बाद के दो काल्पनिक दृश्यों का जिक्र, उसके बाद आगे बढ़ेंगे। पहला सीन-लड़का घर से निकला। पड़ौसी को मन ही मन कोसा और आवाज दी,अंकल,गाड़ी थोड़ा इधर उधर करो। मुझे ऑफिस जाना है। अंकल को  भी गाड़ी निकालनी थी। दोनों गाड़ियां गली मे रहने वाले दूसरे लोगों की गाड़ियों के साथ ही सड़क पर खड़ी थीं। दूसरा सीन-बीमार व्यक्ति को गाड़ी में हॉस्पिटल ले जाया जा रहा है। कोई ऐसी सड़क नहीं जहां दोनों तरफ गाड़ियां पार्क ना हों। सड़क पर वाहन जगह मिलती तो कभी चलते जगह नहीं होती तो रुकना भी पड़ता। जैसे तैसे गाड़ी किसी तरह आगे बढ़ी तो बीमार की नब्ज रुक गई। अभी हंसी में उड़ा देंगे इस कल्पना को। किन्तु ऐसा ही होगा। कारण? कारण यही कि  नगर की सड़कों की चौड़ाई तो बढ़ी नहीं सकती हमारी इच्छा बढ़ रही है, सरकारी सड़क को अपना बना लेनी की। उसे अपने घर,दुकान में समाहित कर लेने की। यह सिलसिला ऐसे ही चला तो जो आज कल्पना है वह सालों बाद हकीकत होगी। सालों पहले लोगों के पास ना तो इतनी गाड़ियां थी और ना मकानों के चारदीवारी। बाइक,साइकिल होती थी जो सुबह आँगन से चबूतरे पर आ जाती। कार-वार होती तो उसके लिए गैराज होता था। समय बदल गया। घर में गैराज हो ना हो छोटी बड़ी कार जरूर होगी। एक घर में एक से अधिक वाहन। जो रात भर तो चबूतरे पर रहती है।  सुबह होते ही उनको सड़क पर पार्क कर दिया जाता है। इसकी चिंता नहीं कि सड़क पर आने जाने वालों को परेशानी होगी। पूरे शहर में ऐसा होता है।सड़क कोई भी हो घर घर के सामने यही दृश्य दिखाई देंगे। ये दृश्य कभी समाप्त नहीं होने वाले। हो भी नहीं सकते। क्योंकि सड़क, सड़क रहने वाली नहीं। या तो वह हमारे लालच की भेंट चढ़ जाएगी या उसे पूरी तरह  पार्किंग पैलेस में बदल जाना है। चबूतरे की जगह तो कभी से हमारी हो चुकी। नाली को भी किसी ना किसी बहाने कवर कर ही रहे हैं। वोट और नोट की राजनीति के कारण कोई किसी को रोकने वाला है नहीं। जिसने ऐसा कर लिया वह सुखी। जो नहीं कर सका वह या तो पछताता है या कुढ़ता है व्यवस्था पर। अपने आप पर। जो सुखी हो जाते हैं उन्हे  इस बात की चिंता नहीं कि जब सड़क पर जगह ही नहीं होगी तो हम चलेंगे कहां? इस बात की फिक्र भी कोई क्यों करने लगा  कि हमारे बच्चे हमें क्या कहेंगे? जब हमें इन बातों से ही कोई सरोकार नहीं तो शहर के लिए क्यों सोचने लगे! संभव है जो आज ऐसा कर रहे हैं वो उक्त काल्पनिक दृश्यों को हकीकत बनते देखने के लिए हो ही ना।

Friday 30 November, 2012

बैठना भाइयों का चाहे बैर क्यूँ ना हो......


श्रीगंगानगर-माँ कहा करती थी, बैठना भाइयों का चाहे बैर क्यूँ ना हो,छाया पेड़ की चाहे कैर क्यूँ ना हो। कौन जाने माँ का यह अपना अनुभव था या उन्होने अपने किसी बुजुर्ग से यह बात सुनी थी। जब यह बात बनी तब कई कई भाई हुआ करते थे।उनमें खूब बनती भी होगी। इतनी गहरी बात कोई यूं ही तो नहीं बनती। तब  किस को पता था कि  कभी ऐसा वक्त भी आएगा जब भाइयों का साथ बैठना तो क्या उनमें आपसी संवाद भी नहीं रहेगा। उससे भी आगे, ऐसा समय भी देखना पड़ेगा जब इस गहरी,सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण बात पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाएगा। क्योंकि भाई हुआ ही नहीं करेगा। एक लड़का एक लड़की,बस। तो! बात बहुत पुरानी है। तस्वीर काफी बदल चुकी है। इस बदलाव की स्पीड भी काफी है। रिश्तों की  गरिमा खंड खंड हो रही है। रिश्तों में स्नेह का रस कम होता दिखता है। मर्यादा तो रिश्तों में अब रही ही कहां है। खून के रिश्ते पानी पानी होने लगे हैं। अपवाद की बात ना करें तो यह किसी एक की नहीं घर घर की कहानी है। कहीं थोड़ा कम कहीं अधिक। व्यक्तिवादी सोच ने दिलो दिमाग पर इस कदर कब्जा जमा लिया कि किसी को अपने अलावा कुछ दिखता ही नहीं। रिश्तों में टंटे उस समय भी होते होंगे जब उक्त बात बनी। परंतु तब उन टंटों को सुलझाने  के लिए रिश्तेदारी में  रिश्तों की गरमाहट को जानने और महसूस करने वाले व्यक्ति होते थे। जिनकी परिवारों में मान्यता थी। उनकी बात को मोड़ना मुश्किल होता था। व्यक्ति तो अब भी  हैं। परंतु वे टंटे मिटाने की बजाए बढ़ा और देते हैं।  एक दूसरे के सामने एक की दो कर। रिश्तों में ऐसी दरार करेंगे की दीवार बन जाती है दोनों के बीच। किसी को दीवार के उस पार क्या हो रहा है ना दिखाई देता है ना सुनाई। फिर कोई किसी अपने को मनाने की पहल भी क्यों करने लगा! उसके बिना क्या काम नहीं चलता। इस प्रकार के बोल सभी प्रकार की संभावनाओं पर विराम और लगा देते हैं। सुना करते थे कि खुशी-गमी में रूठे हुए परिजन मानते और मनाए जाते हैं। पहले खुशी के मौके पर आने वाले रिश्तेदार सबसे पहले यही काम करते थे। अब तो किसी कौने में खड़े हो कर बात तो बना लेंगे लेकिन बिखरे घर को एक करने की कोशिश नहीं करेंगे। इसकी वजह रिश्तों में आया खोखलापन भी है। समाज में किसी का किसी के बिना काम नहीं चलता। सबका साथ जरूरी है। किसी की कहीं जरूरत है किसी और की किसी दूसरी जगह। कोई ये साबित करना चाहे कि उसका तो काम अकेले ही चल जाएगा तो कोई क्या करे? काम चल भी जाता है लेकिन मजा नहीं आता। मन में टीस  रहती है। अंदर से मन उदास होता है। ऊपर बनावटी हंसी। क्योंकि सब जानते हैं कि मजा तो सब के साथ ही आता है।

Thursday 22 November, 2012

अब बदल चुकी है रिश्तों की परिभाषा........


श्रीगंगानगर-रिश्ते!...अब तो रिश्ते आर्थिक,सामाजिक हैसियत और राजनीतिक,प्रशासनिक अप्रोच देख कर बनाए जाते हैं। उससे भी राम रमी मजबूरी होती है जिसका दबदबा हो....अगर ये क्वालिटी आप में नहीं है तो आप  अपने घर में खुश रहो....आपका परिचय देना भी मेरे लिए मुश्किल है। समझ गए ना... किसी प्रकार का वहम किसी से रिश्तेदारी या मित्रता का मत रखना। बेकार में मन दुखी होगा। रिश्तों की गिरती गरिमा पर अफसोस करोगे। किन्तु हासिल कुछ भी नहीं होना। माहौल ही ऐसा है। कोई इसमें बुरा माने तो माने। जैसे ही किसी को पता लगा कि आप सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक,प्रशासनिक....आदि में बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति होने वाले हैं या हैं।शासन-प्रशासन में आपका दखल है। आपको  देखा और पहचाना जाता है। आपकी बात सुनी जाती है। समझो, आप अपने रिश्तेदारों,मित्र मंडली और उनके आगे के रिश्तेदारों और मित्रमंडली के लिए बहुत अधिक खास बन गए। इसके लिए किसी को कुछ कहने,बताने की जरूरत नहीं। आपका लगातार बजने वाला फोन ये आपको समझा देगा। मिलने के लिए आने वाले व्यक्ति और आपको बुलाने की चाह भी संकेत करेगी कि आप अब पहले जैसे नहीं रहे। आपके बारे में दूसरों को इस रूप में बताया जाएगा....अरे वो! वो तो अपने एकदम निकट हैं।कोई काम हो तो बताना,अपने करवा लेंगे.... । कोशिश होगी कि उसे आपके साथ सब लोग देख लें। दूर से दूर का रिश्तेदार आपको अपना निकट का रिश्तेदार बताएगा। कई पीढ़ी दूर कोई व्यक्ति आपको अपने परिवार का कह कर मान बटोरने की कोशिश करेगा। जो सालों से ना मिले होंगे वे आपके बचपन के मित्र बन जाएंगे। मतलब ये कि आप पर वे अपना अपनत्व लुटायेंगे जो कभी आपके निकट नहीं रहे। वे आप पर हक जताएंगे जिन्होने कभी आपको कोई हक नहीं दिया। वे आपके सबसे निकट होने के प्रूफ पेश करेंगे जो किसी प्रकार की दुख की घड़ी में आपका हाल तक जानने नहीं आए। ये कब तक होगा?जब तक आप वर्तमान स्थिति में हैं। जैसे ही समय बदला। धीरे धीरे सब के सब एक एक करके मंच से गायब होने लगेंगे। उनका अपनत्व किसी और पर निछावर होने लगता है। वे जो कल आपके थे आज किसी और के हो चुके होंगे। इस भौतिक युग की यही परंपरा है। इसलिए टेंशन नहीं। सभी के साथ ऐसा होता है। यह है आज के रिश्तों की नई परिभाषा। यह लिखी है बदलते सामाजिक परिवेश ने। बदली हुई सोच ने। जब रिश्ते बदलते हैं तो शब्द भी बदल जाते हैं सम्बोधन के।



Tuesday 13 November, 2012

हर अंधेरा गुम हो जाए दीपो की रोशनी में


श्रीगंगानगर-पांच दिन का निराला,अलबेला महापर्व दिवाली। एक ऐसा त्यौहार जिसके समकक्ष कोई और हो ही नहीं सकता। यूं तो हर त्यौहार की अपनी कथा  है। उसका धार्मिक,सामाजिक महत्व है। लेकिन दिवाली की बात ही अलग है। धरती का जर्रा जर्रा इसके उत्साह से सराबोर हो जाता है। राज हो या रंक सभी के दिलों में यह उमंग भर देता है। उत्साह का संचार करता है। बच्चे से लेकर बड़े तक के पैरों में जैसे घुंघरू बांध देती है प्रकृति। कई दिन पहले साफ सफाई। थोड़ी बहुत ख़रीदारी। जिसके पास दस रुपए वह दस रुपए खर्च करेगा । जिसके पास करोड़ों वह करोड़ों खर्च करता है। हर परिवार,इंसान दिवाली पर खर्च करता है अपनी जेब के हिसाब से। घर घर में पता ही नहीं कितने जाने अंजाने ऐसे काम,ख़रीदारी होती है जिसको दिवाली पर करेंगे और फिर किया जाता है। पांचों दिन का अलग धार्मिक,पौराणिक महत्व साथ में प्रकृति के स्वरूप को बनाए रखने का काम भी। दिवाली पर जो उत्साह,उमंग,खुशी का संचार हर दिल में हुआ है। वह हर पल हर क्षण आपके अंदर बना रहें। जीवन की हर खुशी,हर आनंद हर दिन आपके घर दिवाली बन के आती रहे। आपकी लाइफ का हर क्षण एक त्यौहार हो। गणपति देव आपकी हर विध्न,बाधा को हर ले। लक्ष्मी माँ की अपार  कृपा आप पर,आपके परिवार पर,आपके शुभचिंतकों और सगे संबंधियों पर हमेशा बनी रहे। किसी भी प्रकार के अभाव का भाव कभी किसी चेहरे पर महसूस ना हो। अंधेरा किसी भी प्रकार का हो वह दिवाली के दीपों की रोशनी में गुम हो जाए। हर इंसान के अंदर इतने दीप रोशन हों कि उसे कभी किसी अंधेरे का सामना ना करना पड़े। थोड़े में अधिक बरकत हो। घर से लेकर समाज में सभी के बीच आपसी भाईचारा हो। सबसे बढ़कर एक दूसरे के प्रति प्रेम की भावना हो। क्षेत्र में शांति और सौहार्द का वातावरण हो। क्योंकि शांति के अभाव में तो सब कुछ बेकार है। क्षेत्र का विकास हो। किसी को किसी प्रकार का अभाव ना रहे। पेट में रोटी हो। तन पर लंगोटी हो और रहने के लिए कोठी हो चाहे छोटी हो। रोटी,कपड़ा और मकान से कोई महरूम ना रहे। जैसी जिसकी जरूरत हो वह पूरी हो। बच्चों में संस्कार हों। बुजुर्गों का आदर मान हो।  उनके अनुभव का सम्मान हो। सभी की सभी बढ़िया कामना पूरी हो। किसी से किसी की दुश्मनी न हो। लेकिन यह सब केवल हमारे लिख देने और आपके पढ़ देने मात्र से नहीं होगा। इसके लिए प्रयास प्रयास करने पड़ते हैं। कर्म प्रधान है सब कुछ। वो तो करना ही पड़ेगा। दीपक में तेल डाल दिया। बाती लगा दी। वह अपने आप नहीं जलता। उसको जलाना  पड़ता है। ऐसी ही ये जीवन है। इसको चलाना है।कहते भी हैं कि जीवन चलने का नाम। बस, जिस तरफ चल रहें हैं वह दिशा सही हो तभी सभी की दशा शानदार,जानदार और दमदार होगी। दीपक अंधेरे में जले तभी उजियारा होगा। यही जीवन है। कदम सही दिशा में बढ़े तभी काम। वरना तो समय और मेहनत दोनों बेकार। यही करना है। दीपक बन कर जलना बहुत मुश्किल है। आज के दिन यही दुआ है कि अगर किसी के जीवन में थोड़ा सा भी अंधेरा किसी कोने में है तो वहाँ प्रकाश पहुंचे। अंधेरा समाप्त हो। उजियारा हो सब के दिलों में। सब के घरों में। याद रहे, अंधेरे का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। अंधेरा तभी है जब रोशनी ना हो। जैसे ही दीपक जलता है अंधेरा समाप्त। इसलिए रोशन करना है सब कुछ। आज ही नहीं...हर क्षण। सभी को दिवाली की मंगलकामना।

Saturday 10 November, 2012

वर्तमान ने बच्चों से छीन लिया उनका बचपन


श्रीगंगानगर-क्विज का सेमीफाइनल। दो बच्चों की इंटेलिजेंट टीम। आत्म विश्वास से भरपूर। बढ़िया अंकों से फाइनल में पहुंची। दूसरे  सेमीफाइनल से टीम उनसे भी अधिक अंक लेकर फाइनल में आई। फाइनल दिलचस्प होने की उम्मीद। परंतु पहले वाली टीम का एक बच्चा डिप्रेशन में आ गया। सिर दर्द,चक्कर। परिणाम जो मुक़ाबला दिलचस्प होना था वह एक तरफा रहा। ये क्या है? अभी से ये हाल! छोटे से कंपीटीशन में इतना अवसाद। हार से इतना डर,घबराहट। जीत हार किसी प्रतियोगिता का ही नहीं इस जीवन का भी प्रमुख हिस्सा है। जिंदगी के किसी मोड़  पर जीत और किसी राह पर हार। ये घटना कोई मामूली नहीं। ऐसा लगता है जैसे वर्तमान में बच्चों से उनका बचपन छीन लिया गया हो। ये सब खुद माता-पिता सबसे अधिक करते हैं। उसके बाद थोड़ा बहुत योगदान स्कूल वालों का भी है। पैरेंट्स भी बेचारे क्या करें! माहौल ही ऐसा है। इसके लिए चाहे अपने ही मासूम बच्चों की शिकायत स्कूल में क्यों ना करनी पड़े, हाय! ये शरारती बहुत है। कहना नहीं मानता। घर में दिमाग बहुत खाता है। हद हो गई! बच्चा शरारत तो करेगा ही। उसे नई से नई जानकारी भी चाहिए। हर किसी के बारे में जानने की उसकी जिज्ञासा उसकी बाल सुलभ प्रकृति है। बस! पैरेंट्स चिढ़ जाते हैं। कभी टीचर भी तंग आ जाते हैं। कारण! उनको पढ़ाई के अतिरिक्त कुछ भी तो पसंद नहीं। घर से पढ़ते हुए जाओ। स्कूल से पढ़ते हुए आओ और आते ही फिर पढ़ो। या फिर हर वह कंपीटीशन जीतो जिसमें भाग लेते हो। नबरों की हौड़ और रैंक की दौड़ ने बच्चों से उसकी भवनाएं,संवेदनाएं,लड़कपन,नटखटपन,खट्टी-मीठी शरारतें सब छीन  ली। उसे एक चलता फिरता गुड्डा/गुड्डी बना दिया गया। क्योंकि पैरेंट्स बच्चों में अपने अधूरे रहे सपने देखने लगते हैं। अपनी इच्छा,कामना बच्चों की मार्फत पूरा करना चाहते हैं। जो पैरेंट्स खुद ना बन सके वह बच्चों को बना अपनी कुंठा समाप्त करने की इच्छा पाल लेते हैं। गिनती के बच्चे होंगे जिनको अपनी पसंद का विषय चुनने की छूट होती है। बहुत कम बच्चे होते हैं जो अपनी मर्जी से रास्ते तय करते हैं। समाज की बदलती सोच ने बच्चों को उम्र से पहले ही बड़ा कर दिया। शिशु अवस्था से सीधे जवानी। बचपन! सॉरी,समय नहीं है। इसलिए नो ब्रेक!  ऐसा बड़ा भी किस काम का जो दही में ही पड़ा रहे। ऐसे बड़े होने वाले अपनी जिंदगी का कौनसा बोझ उठाएंगे! जिसमें समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने का तनाव होगा। पैकेज की चिंता होगी।  बॉस के नित नए टार्गेट होंगे।  पैरेंट्स की इच्छा और  पत्नी की अलबेली कामनाएँ होंगी। साथ में होगा सोशल स्टेटस का दवाब। ना गली में कोई खेल रहे ना घर में कोई बच्चे। दूध पीने वाले बच्चों की पीठ पर पिट्ठू बैग टांग स्कूल भेज कर समाज में अपने आप्क अग्रणी रखने का अहम  पुष्पित,पल्लवित किया जाता है। अब लौटना मुश्किल है। बहुत देर हो चुकी। जो बचे हैं वे भी इस हौड़ में शामिल होने की दौड़ में अपना सुख चैन गंवा चुके हैं। इसका अंत क्या होगा समय के अलावा कौन जानता है?