श्रीगंगानगर-- आ गई पत्नी सफर से।
बैग रखा और घर को निहारा...साफ था एकदम से घर...फिर रसोई में गई....सब कुछ अपने
स्थान पर....बर्तन साफ करके अलमारी में रखे हुए थे....सिंक चमाचम थी। अचरज था
चेहरे पर...इधर उधर अलमारी,दराज खोली....देखी...सब ओके। मुस्कराते
मुखड़े के साथ मेरे गले लग गई। कंधे पर पानी की बूंद गिरी। मैंने पूछा,क्या हुआ। सफर तो ठीक था। किसी से कोई बात तो नहीं हुई। वह हंसते हुए बोली,जी सब ठीक है। ये तो खुशी के आंसू थे। मुझे तो आज मालूम हुआ कि आपको इतना
काम आता है। कमाल है....कभी आपने जिक्र ही नहीं किया। मैं तो ऐसे ही बाई बाई का
वहम पाले हुए थी। अब बाई रखने की बात कभी
नहीं करूंगी। मैं भावुक हो गया...बोल दिया....ये तो तुम हो...जिससे कभी विचार नहीं
मिले फिर भी ऐसा और इतना काम कर दिया....अगर मेरी शादी तुम्हारी बजाए उससे हुई
होती तो....बस बिगड़ गया काम। मुस्कान गायब होनी ही थी...आलिंगन की कसावट भी जाती
रही फिर आलिंगन भी। उससे किस से...बीबी का तीखा प्रश्न आया। अब क्या इस प्रश्न का
जवाब तो कोई नहीं दे सकता। मामला बिगड़ना ही था। जो घर बीबी के आने से मस्त लग रहा
था वह उसके गुस्से से त्रस्त हो गया। जो बर्तन साफ थे उसमें चिकनाई नजर आने लगी।
सिंक की चमचमाहट लुप्त हो गई। उन कपों की गिनती हो गई....पता लग गया कि एक टूट
गया। झल्लाहट चेहरे पर लाकर बोली,खाक काम किया है घर का। दो
दिन घर से बाहर क्या गई....घर का हुलिया बिगाड़ दिया। अभी थोड़े दिन पहले लाई थी कुछ
कप..... । दो दिन में तोड़ दिया....हमे देखो,सालों काम करते
हुए हो गए...दो चार ही टूटे होंगे अब तक। [बीबी के ऐसे मूड में ये तो कैसे कहता कि
तुम्हें तो अनुभव है] बात गंभीर हो चुकी थी। संभालनी थी...मैंने सफाई दी...अरे वो
कोई है ही नहीं। तुम सोचो...वो होती तो कभी तो आती...कभी दिखती...फोन करती...कोई
संदेश आता....तुझे मिलती...पर ऐसा है ही नहीं ना। बीबी ने क्या सुनना था। एक जरा
सी बात पर बना बनाया खेल बिगड़ गया। एक तो घर का काम किया। ऊपर से नया बखेड़ा हो
गया। बीबी को इंप्रेस करने के चक्कर में इज्जत जाने का खतरा तो हो ही गया। बीबी की
बड़बड़ जारी थी। लेकिन इस घटना से नए सबक तो मिल ही गया। पहला सबक तो ये कि बीबी
बाहर जाए तो घर काम मत करो...ऐश करो...घर की और बर्तन की सफाई करने की जरूरत नहीं।
दूसरा कोई मेरे जैसा दयावान कर भी ले काम तो बीबी के लाड में आकर वो न कहे जो
मैंने कह दिया। बरना घर का माहौल बिगड़ जाने की आशंका है। बाकी आपकी मर्जी। आज के
दौर की दो लाइन पढ़ो---मन के भाव डगमगाने लगे हैं,घर में पैसे
आने लगे हैं।
हर इन्सान हर पल किसी ना किसी उधेड़बुन में रहता है। सफलता के लिए कई प्रकार के ताने बुनता है। इसी तरह उसकी जिन्दगी पूरी हो जाती हैं। उसके पास अपने लिए वक्त ही नहीं । बस अपने लिए थोड़ा सा समय निकाल लो और जिंदगी को केवल अपने और अपने लिए ही जीओ।
Tuesday, 30 April 2013
Tuesday, 23 April 2013
किसी को किसी की जरूरत ही नहीं रही अब
श्रीगंगानगर-इंसान को खुद के अंदर ही
नहीं गली मोहल्ले तक में अकेलापन महसूस होता है। भीड़ में भी ऐसे लगता है जैसे कोई
तो हो जो बात कर सके उसके मन की। बदलते परिवेश भाग दौड़ भरी दिनचर्या ने सभी को ऐसे
ही किसी ना किसी मोड़ पर ला खड़ा किया हुआ है। जहां सभी है तो अकेले लेकिन फिर भी कोई किसी का हाथ पकड़ना नहीं चाहता। आलिंगन करने
की इच्छा नहीं रखता। फेसबुक पर घंटों अंजान “दोस्तों” से वार्ता कर लेगा परंतु
पड़ौसी से फेस टू फेस बात नहीं होती। इस स्थिति में भी सभी खुश और मस्त दिखते तो हैं।
सच में हैं कि नहीं वे खुद जाने। और हैं तो कितने हैं ये उनका दिल जानता है। बात
अधिक पुरानी नहीं है। मोहल्ले में रात को एक बुजुर्ग इस संसार से प्रस्थान कर गए। सब
गए सूरत दिखाई...हाथ जोड़े...कहा,कोई
काम हो तो बताना। रात बीत गई। सुबह आ गई.....मोहल्ले में लगता ही नहीं था कि दो
चार,पांच मकान आगे किसी घर में बुजुर्ग का मृत शरीर रखा है।
अंतिम क्रिया होनी है। सब के सब अपने अपने काम में व्यस्त। घर घर की वही
दिनचर्या....वही स्नान ध्यान...पूजा....मंदिर जाना....नाश्ता....सैर....कुत्ते को
घुमाना....झाड़ू-पौचा....सफाई.... । किसी काम में कोई परिवर्तन नहीं। कोई समय का
बदलाव नहीं। इतना ध्यान जरूर था कि इतने बजे मृत शरीर की अंतिम यात्रा शुरू होगी।
उससे पहले पहले जरूरी काम निपट जाए तो ठीक रहेगा। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। कोई
अंजान व्यक्ति गली में दाखिल हो तो उसे पता ही ना लगे कि गली में किसी की मौत हुई
है और थोड़ी देर में संस्कार होना है। पता लगे भी तो कैसे....गली में कोई उदासी
नहीं...कोई खामोशी नहीं...वही हलचल...वही बोलचाल....। वही टीवी की
आवाज....गाने...मज़ाक....। ऐसा पहले नहीं होता था। गली में मौत होने पर हर घर की
दिनचर्या थोड़ी बहुत बदल जाती थी। शोक महसूस होता था गली मोहल्ले में। क्या मजाल की
कोई बच्चा टीवी,रेडियो की आवाज ऊंची कर दे। ठहाके तो दूर तेज
आवाज में बोलना तक असभ्यता हो जाती थी। किसी महिला को मंदिर भी जाना होता तो थोड़ा
छिप छिपा के। गली में घुसते ही सबके चेहरे खूब ब खुद गमजदा हो जाते। अब तो ये सब
कहानी सी लगती है। साथ वाले मकान के लोग ही परवाह नहीं करते। ज्यादा हुआ तो
चाय-पानी भेज दिया,ले गए...बस और क्या तो। ये बदलाव एकदम से
ही हमारे सामने आ खड़ा हो गया हो ऐसा नहीं है। धीरे धीरे आया....शुरू में तो आभास
नहीं हुआ....सामान्य बात लगी....अब यह बदलाव दिखने लगा...। चूंकि ये जंगल नहीं
समाज है इसलिए अकेलापन सभी को कचोटता है।अभी तो क्या कचोटता है....अभी तो इस से भी
अधिक एकांत के क्षण आने वाले हैं। ये क्षण...हमने खुद चुने हैं। क्योंकि हम अकेले
रहना पसंद करते हैं।किसी को किसी की जरूरत ही नहीं रही। दो लाइन पढ़ो..... रिश्ते वो जो हों काम के, बाकी सब बस सलाम के।
Tuesday, 9 April 2013
छोटे कद की बड़ी महिला बलविंदर कौर कुन्नर
श्रीगंगानगर-इन शब्दों के साथ जो चित्र है वह
बनावटी नहीं असली है। असली मतलब छाज ,चक्की,छलनी,चादर,चने,दाल इस महिला के आस पास चित्र खींचने के लिए नहीं सजाए गए। सब नच्युरल है।
यह महिला सामान्य रूप से काम कर रही थी और फोटो ले ली गई। यह महिला है बलविंदर
कौर। कौन बलविंदर कौर?स्वाभाविक प्रश्न है। गुरमीत सिंह
कुन्नर [वर्तमान में राजस्थान के कृषि विपणन मंत्री] की पत्नी बलविंदर कौर।छोटे से
कद की इस महिला को बाजार में थैला हाथ में लिए कुछ ख़रीदारी करते देखो तो अचरज करने
की बात नहीं। क्योंकि बलविंदर कौर सम्पूर्ण गृहणी हैं। दूसरी महिलाओं की तरह। पति दशकों
से राजनीति में हैं लेकिन इनको राजनीति से कोई लेना देना नहीं। आज तक किसी
राजनीतिक कार्यक्रम में इनको नहीं देखा गया। आम ग्रामीण महिलाओं की तरह तड़के उठना।
रसोई,दूध,दहीलस्सी का काम। जयपुर हो या
गाँव में, मंदिर,गुरद्वारे जाना बिना
नागा। शनिवार को सुबह कटोरी में सरसों का
तेल लेकर वहां आना, जहां गुरमीत सिंह कुन्नर बैठे होते,उनको तेल में चेहरा देखने को कहना....और फिर शनि मंदिर जाना। कितनी ही बार
देखा है मैंने। 18 फरवरी 1972 को इनकी शादी गुरमीत सिंह कुन्नर से हुई। उसके बाद गुरमीत सिंह कुन्नर के घर में धन,दौलत,मान सम्मान की कोई कमी नहीं रही। हर वक्त हल्की
मुस्कान चेहरे पर। राजनीति की बात करो तो यही कहतीं हैं....ये अपना काम कर रहें
हैं मैं अपना। इनको राजनीति से फुरसत नहीं और मुझे घर से। राजनीति से कोई
शिकायत.....नहीं, क्योंकि जन जन की सेवा करने का मौका किसी
किसी को ही मिलता है,उनका जवाब था। वे कहतीं है,बहुत खुश हूं जिंदगी से। भगवान ने सब कुछ दिया है....और क्या चाहिए। रोटी-सब्जी
खुद बनाती हैं। काम से फुरसत मिल जाए तो
कपड़ों की सिलाई भी हो जाती है। सरसों का साग और कढ़ी बनाने में कोई जवाब नहीं। बलविंदर
कौर को राजनीति में कोई रुचि नहीं। पति राजनीति में हैं तो एतराज नहीं। दोनों अपने
अपने फील्ड में जमे हैं। राजनीति में आने की कोई संभावना नहीं है इनकी। एक खास
बात....। मंत्री की पत्नी होने का कोई गरुर कभी चेहरे पर नहीं। हमेशा हर समय वही
चेहरे पर हल्की सी मुस्कान। एक बार कुन्नर दंपती की शादी की वर्ष गांठ थी। बलविंदर
कौर जयपुर से गाँव आ गईं...। 17-18 फरवरी की रात को बलविंदर कौर ने पति गुरमीत
सिंह कुन्नर को एसएमएस कर दिया बधाई का। गुरमीत सिंह कुन्नर 18 फरवरी की सुबह
जयपुर से रवाना होकर गाँव पहुँच गए। परिवार में अपनी शादी की वर्ष गांठ मनाने के
लिए।
Friday, 5 April 2013
मन लागा मेरा यार फकीरी में..जुदा -जुदा फकीरी
श्रीगंगानगर-फकीरी! जिस के पास सब है उसका फक्कड़
अंदाज फकीरी है। जिसके पास कुछ लेकिन वह ऐसे जीता है जैसे
दुनियाँ की सभी सुख सुविधा उसके कदमों में है तो उसका यह अहसास फकीरी है। हर हाल
में मस्त। हर स्थिति में उमंग। प्रत्येक परस्थिति
में उल्लास। जीवन के क्षण क्षण को खुशी से जीने का उत्साह ही शायद फकीरी
है। आदर्श नगर पार्क में सत्संग के दौरान संत जी भजन गा रहे
थे.....मन मेरा लागा यार फकीरी
में........। जिस हिस्से में कथा हो रही थी कई सौ व्यक्ति इसी में रमे थे। संभव है
वे संत,उसके
शब्दों,भजन की
फकीरी के निकट अपने आप को महसूस कर रहे थे। दूसरे छोर पर कई ग्रुप तास में मस्त
थे। वे दीन-दुनिया की खबर से बेखर गुलाम,बेगम,बादशाह
के साथ नहले पर दहला करने में लगे थे। उनकी अपनी फकीरी थी। किसी से कोई मतलब नहीं।
ना सत्संग का। न माहौल का और ना भीड़ का। नजर उठती तो सामने वाले खिलाड़ी पर बस! एक
तरफ माँ बच्चे पर ममता की फकीरी में इस कदर डूबी थी कि उसे अपने आंचल के सरकने की
भी परवाह नहीं थी। वात्सल्य से सराबोर वह कभी बच्चे को गोद में लेकर झूला झुलाती
और कभी उसको नेचे छोड़ उसके पीछे भागती। बच्चा ममत्व
की फकीरी से सराबोर था। जो माँ के साथ हो उसे किसी और फकीरी की जरूरत भी कहां। अनेक
ऐसे बच्चे भी थे जो अपने बचपन की फकीरी में खोए थे। कभी सत्संग वाली साइड में धमा
चौकड़ी करते तो कभी तास खेलने वालों के निकट जाकर। उनका मन ना तो संतों के प्रवचनों
में था और ना तास में। उनके लिए तो बचपन,खेल,मासूमियत,शरारत ही फकीरी थी। पार्क की दुनिया यहीं समाप्त नहीं
होती। शाम के समाज सैर करने वाली महिलाएं भी थीं। एक निश्चित समाय के बाद वे व्यास
गद्दी और तास खेलने वालों के निकट से गुजरती। उनकी एक
क्षण के लिजे नजर तो उठती लेकिन वे बातों की फकीरी में डूबी थीं। उनके लिये शायद प्रवचन करने,सुनने और तास
खेलने वालों में अधिक फर्क नहीं था। भीड़ थी उनके लिए। मनचले भी थे। जिनकी आँख ना
तो व्यास गद्दी की तरफ जाती थी ना और कहीं। जाती थी तो उन युवतियों
की तरफ
जो पार्क से होकर गुजर रहीं थी। इस उम्र में वे इसी सौंदर्य दर्शन को फकीरी मान रहे थे। एक
लड़की लड्डू गोपाल को गोद में लिए थी।लड़की उसे अपना दोस्त मानती है। लड्डू गोपाल
से दोस्ती लड़की की फकीरी है। मन लागा मेरा यार फकीरी में....भजन के
स्वर मंद होने लगे...बंद। संत भी प्रस्थान
कर गए और उनको सुनने आए लोग भी। लेकिन बाकी तास के खिलाड़ी,माँ,बच्चे,मनचले,सैर वाले सब अभी भी अपनी अपनी
फकीरी में मस्त है। ये पार्क की छोटी दुनिया है। सब की अलग अलग फकीरी
है....। फकीरी है भी यही...हर हाल
में मस्त...बाकी दुनिया से बेखर। मन लागा
मेरा यार फकीरी में.........।
Thursday, 4 April 2013
दर्द जो बच्चों जुदाई की तड़फ से पैदा होता है
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