हर इन्सान हर पल किसी ना किसी उधेड़बुन में रहता है। सफलता के लिए कई प्रकार के ताने बुनता है। इसी तरह उसकी जिन्दगी पूरी हो जाती हैं। उसके पास अपने लिए वक्त ही नहीं । बस अपने लिए थोड़ा सा समय निकाल लो और जिंदगी को केवल अपने और अपने लिए ही जीओ।
Saturday, 2 November 2013
Saturday, 19 October 2013
कई बातें भी विदा हो रहीं है बुजुर्गों के साथ
श्रीगंगानगर-भाभी जी को पूजा की डलिया लेकर सीधी गली से आते देखा. रुक गया. पास आए तो पूछ लिया,आज इधर किधर से? आज कार्तिक शुरू हो गया ना,इसलिए दुर्गा मंदिर में गई थी. क्योंकि भवन में [गली के छोटे मंदिर] पथवारी नहीं है सींचने के लिए,भाभी ने बताया. भाभी रोज गली के मंदिर में ही जाया करती थी. आज दूसरे मंदिर में गई थी. बात तो मामूली थी. लेकिन मां की स्मृतियां दिलो दिमाग में चली आईं. पीछे लौट गया अपने आप. मां होती तो दो तीन दिन पहले ही पता लग जाना था कि कार्तिक शुरू होने वाला है. हालांकि अपने लिए तो सब एक से ही हैं. लेकिन मां के लिए कार्तिक का बहुत महत्व था. सुबह जल्दी उठाना. ठन्डे पानी से स्नान कर अँधेरे ही घर से मंदिर चले जाना.यह ध्यान रखते हुए कि दरवाजा खुलने बंद होने से कोई आवाज न हो ताकि किसी की नींद में खलल ना पड़े. बस, जाते हुए यह बोलना, मैं जा रहीं हूं. एक कार्तिक ही क्यों मां के रहते हर छोटा बड़ा त्यौहार,वार, अच्छा,बुरा ग्रह नक्षत्र सब कुछ मालूम हो जाता था. कल फलां दिन है सेव मत करना. परसों ये दिन है इसलिए वो नहीं करना. आज ही कर लो. बहु,बेटी को भी बता देना कि इस सप्ताह में क्या बार त्यौहार आने है. छोटे से लेकर बड़े सब को ज्ञात हो जाता था. वैसे भी उनके काम से संकेत मिल जाते थे. कभी कोई धागा रंगते हुए. कभी किसी कागज पर कोई आकृति उकेरते हुए. कभी किसी लाल-पीले कपड़े की तह जमाते समय. किसी आले में कोई दीपक जलना. बाहर देहरी पर पानी डालना. लेकिन अब वो बात कहाँ! बुजुर्गों के साथ ही ये सब विदा हो रहा है. अच्छे,बुरे वार,घडी,नक्षत्र कितनी ही ऐसी परम्पराएं उनके साथ चली गईं. जो सदियों तक बुजुर्गों से अगली पीढ़ी तक पहुंचती रहीं हैं. बच्चे के जन्म से लेकर उसकी शादी तक की सभी रस्में. नवजात बच्चे की छोटी छोटी बिमारियों को दूर करने के आसान नुस्खे.बच्चे के अधिक रोने का टोटका तो उसकी नजर उतारने का टोना. सब के सब घरों से गायब हो गए. अगर कहीं किन्ही परिवारों में ये सब हैं तो वे बहुत अमीर हैं.लेकिन उनको भी विदा होना है. क्योंकि आज की पीढ़ी को मतलब ही नहीं इन सब बातों से. वे आधुनिक हो चुके हैं. उनको ये सब नहीं भाता, लेकिन मज़बूरी तब सामने आती है जब कोई बार,त्यौहार घर में आता है. कोई सामाजिक प्रोग्राम करना होता है. तब याद आती है मां जी की. फिर ननद,बड़ी से बड़ी जेठानी,खानदान की बुजुर्ग महिला से पूछेंगे?जी,ये कैसे होगा? कैसे करते हैं अपने घर में?बात केवल कार्तिक की नहीं. असल में तो आजकल बहु,बेटी,युवा दादा,दादी,नाना,नानी के पास बैठना तक पसंद नहीं करते. जबकि उनके पास सुबह से रात तक और जागने से लेकर सोने तक की बहुत सी काम की बात हैं. किस बार,त्यौहार पर क्या क्यों किया जाता है,उसका जवाब है. बहुत से घरों में बहु बेटियों ने अपने बुजुर्गों से पूछ कर लिख लिया सब कुछ. ताकि एक पीढ़ी का ज्ञान दूसरी पीढ़ी तक पहुंचे. बेशक जमाना कितना भी आधुनिक हो गया हो लेकिन आज भी घरों में हर प्रकार की सामाजिक रस्मों रिवाज निभाई जातीं हैं. बस फर्क इतना है कि आज इधर उधर से पूछ कर,इन्टरनेट पर तलाश कर यह सब किया जाता है. बुजुर्गों के रहते तो पूछना ही नहीं पड़ता था. सब अपने आप हो जाता. अब बुजुर्गों की संख्या कम हो रही हैं. जो अब बुजुर्ग होंगे उनको गूगल,फेसबुक,ट्विटर के बारे में तो बहुत ज्ञान होगा लेकिन उन बातों का नहीं जो हमें जड़ों से जोड़े रखती थी किसी ना किसी बार त्यौहार के बहाने. परिवार को इकठ्ठा कर लिया करती थी कभी किसी बहाने तो कभी किसी बहाने. हम बहुत दूर आ गए. बुजुर्गों से भी और अपनी परम्पराओं से भी.
Tuesday, 13 August 2013
अपनी दुनिया में किसी और के लिए जगह नहीं
श्रीगंगानगर-इंटरनेट ने दुनिया को बहुत छोटा कर दिया। एक डिब्बे में समेट दिया। सब कुछ कितना पास है हमारे। जिस से चाहो बात करो। जो चाहे प्रश्न पूछो। आपके प्रश्न समाप्त हो जाएंगे,यहा बताना बंद नहीं करेगा। बेशक दुनिया के नजदीक आए हैं हम सब। लेकिन पड़ौसी से कितने दूर हो गए यह किसी ने नहीं सोचा। जिसका रिश्तों में सबसे अधिक महत्व था। जो सबसे निकट था। वह बहुत दूर हो गया और हमें पता भी नहीं चला। दुनिया के बड़े से बड़े व्यक्ति के फोन नंबर हमारे मोबाइल फोन में होंगे।परंतु पड़ौसी के शायद ही हों। वो भी जमाना था जब पड़ौसी से एक कटोरी चीनी,एक चम्मच चाय पत्ती मांगना सामान्य बात थी। सब्जी का आदान प्रदान तो बड़ी आत्मीयता से होता था। “जा मोनु सरसों का साग रश्मि की माँ को दे आ उसे बड़ा चाव है सरसों के साग का।“ उधर से भी ऐसे ही भाव थे। कोई तड़के वाली दाल दे जाता तो कोई बाजरे की रोटी ले जाता। पड़ौसी भी रिश्ते की अनदेखी डोर से बंधे होते। चाची,मामी,ताई,दादी,नानी,भाभी,बुआ कौनसा रिश्ता था जो नहीं होता। अपने आप बन जाते ये रिश्ते। सात्विक प्रेम,अपनेपन से निभाए भी जाते थे ये रिश्ते। घर की बहिन,बेटी,बहू छत पर कपड़े सुखाने के समय ही पड़ौस की बहिन,बेटी,बहू खूब बात करतीं। बड़ी,पापड़,सेंवी बनाने के लिए बुला लेते एक दूसरे को। छत से ही एक दूसरे के आना जाना हो जाता। अब तो दो घरों के बीच दीवारें इतनी ऊंची हो गई कि दूसरे की छत पर क्या हो रहा है पता ही नहीं लगता। ऊंची एड़ी करके कोई देखने की कोशिश भी करे तो हँगामा तय है। ये कोई अधिक पुरानी बात नहीं जब घरों के बाहर चार दीवारी का रिवाज नहीं था। किसी भी स्थान पर एक खाट बिछी होती और फुरसत में मोहल्ले की औरतें की महफिल शुरू हो जाती। सर्दी में एक घर की धूप सबकी धूप थी। सूरज के छिपने तक जमघट। अब तो सबकी अपनी अपनी धूप छांव हो चुकी है। ना तो कोई किसी के जाता है नो कोई पसंद करे कि कोई आकर प्राइवेसी भंग करे। अब तो घर घर में सबके अलग अलग कमरे हैं। काम किया,चल कमरे में। सभी के अपने नाटक टीवी पर। सब के सब सिमटे हैं अपने आप में। समय ही नहीं है एक साथ बैठने का। बात करने का। चर्चा कर चेहरे पर मुस्कुराहट लाने का। मुखड़ा बताता है कई झंझट है दिमाग में। तनाव है दिल में। परंतु रिश्ते तो रह गए केवल नाम के इसलिए दिल की बात कहें किस से और किस जुबान से। सच में नए जमाने ने दुनिया छोटी कर दी लेकिन उस दुनिया में इंसान दिनों दिन अकेला होता जा रहा है। इस दुनिया में खुद के अलावा किसी और के लिए ना तो कोई स्थान है और ना अपनापन। कितनी दूर आ गए हम अपने आप से।
Sunday, 14 July 2013
शहर गंगा सिंह जी का है....सत्ता केवल पुलिस की
श्रीगंगानगर-श्रीगंगानगर
में किसी नागरिक को रहना है तो अपनी रिस्क पर रहे। पुलिस से किसी प्रकार की कोई
उम्मीद ना करे। आप के साथ कोई भी जुल्म हो
आपका यही फर्ज है कि चुपचाप सहन करो और घर चले जाओ। चोरी हो गई...ईश्वर का प्रकोप
समझ कर चुप रहो। रास्ते में किसी ने लूट लिया....किसी से मत कहो....ये सोच कर अपनी राह पकड़
लेना कि बुरा समय आया था। बाइक चोरी
हो गई...पैदल चलना शुरू करो या हैसियत हो तो दूसरी ले आना....थाना जाओगे,रिपोर्ट करोगे तो मन को और अधिक पीड़ा होगी। किसी ने राह चलते मार
पीट कर ली तो दूसरा गाल भी आगे करने का गांधीवादी फर्ज अदा करना। किसी
घटना...अपराध....की सूचना भूल कर भी पुलिस को मत देना...वरना ऐसी मुसीबत आएगी कि
पूरा घर टेंशन में रहेगा....फिर भी जान छूटेगी क्या गारंटी है। मोहल्ले में
लड़कों का जमघट है....बाइकर्स का डर है तो घर के दरवाजे बंद कर लो या फिर मोहल्ला
बदल लो....पुलिस को गलती से भी ना बताना....ये लोग रोज और अधिक
परेशान करेंगे आपको। ये स्थिति इस शहर की जो है महाराजा गंगा सिंह जी ने बसाया था।
कहते हैं कि उनके राज में ना तो अन्याय था और ना अपराध। वे कोई डंडा लेकर थोड़ा ना
घूमते थे हर गली में...बस उनके राज का डर था। उनके ही शहर में आज भी डर
तो है लेकिन या तो पुलिस का या असामाजिक तत्वों का। हैरानी की बात है कि असामाजिक
तत्वों को पुलिस का कोई डर नहीं। ये लोग कहीं भी
कभी भी कुछ भी कर सकते हैं। थाना चले जाओ...न्याय नहीं मिलेगा। हां,पंचायती से फैसला जरूर करवा देंगे। जी, इसके दाम तो देने ही पड़ेंगे। आदमी सोचता
है...पैसे लग गए जान तो छूटी। कई बार तो ऐसा लगता है जैसे थाना से लेकर एसपी ऑफिस तक
सब कुछ बड़े बड़े सेठों के यहां गिरवी रख दिया गया है। जन सहयोग के नाम से थाना और कई अधिकारियों
के दफ्तरों में जो सुविधा है वह इनके ही द्वारा ही तो उपलब्ध करवाई जाती हैं। या
अधिकारियों द्वारा ली जाती हैं।जब कोई किसी से कैश या काइंड अथवा सामान लेकर
ओबलाइज हो गया तो उसकी नजर तो झुक ही जाएगी ना। स्वाभाविक है ये बात। उसके बाद फिर
पुलिस में किसकी चलेगी! आम आदमी थाना में जाने से पहले सिफ़ारिश की तलाश करता है। ताकि
सुनवाई हो सके। कोई भी पीड़ित अकेला नहीं जाता...चला भी गया तो उसके साथ
जो कुछ होता है वह किसी को बताए तो विश्वास ही ना करे। तो जनाब ये शहर जरूर
महाराजा गंगा सिंह जी ने बसाया है...लेकिन अब राज उनका नहीं है। इसलिए यहां रहना है तो अपना जमीर,स्वाभिमान,आत्मसम्मान गटर में डाल दो। जो होता है होने दो.....ये सोच कर कि भगवान की
यही मर्जी है। जिनके लिए पुलिस प्रशासन काम कर रहा है वह उनको करना चाहिए। वो आपके
लिए है ही नहीं। जिनके हैं ए है उनके लिए हैं। इसलिए उनको बुरा भला कहने से कोई
फायदा नहीं...कहोगे तो अपनी ही सेहत खराब करोगे।
Friday, 5 July 2013
माता-पिता दुश्मन तो नहीं होते बच्चों के
श्रीगंगानगर-सुबह
का सुहाना समय। एक घर से लड़का बाइक लेकर निकला। किताबों का पिट्ठू बैग था।
वह होगा कोई 15 साल का। मूंछ की हल्की सी लाइन बता रही थी कि लड़का जवानी
की तरफ कदम बढ़ा रहा है। भले और अच्छे घर के इस किशोर लड़के के पीछे उसके
पिता आए। आवाज लगाई....थोड़ा पीछे गए.....उसे रोका.....जादू की झप्पी देने
की कोशिश की। लड़के ने हाथ पीछे कर दिया और बाइक लेकर स्कूल चला गया। पिता
देखता रहा उसे दूर जाते हुए। पिता मायूस चेहरे के साथ घर आ गया। यह दृश्य
बता रहा था कि घर में कुछ ऐसा हुआ जिससे लड़का नाराज हो गया। पिता होता ही
ऐसा है कि पीछे आया उसे मनाने को। लेकिन आज के बच्चे!...कमाल है। पुराना
समय होता तो पिता एक देता कान के नीचे.....अब समय बदल गया है। थोड़ी उम्र
क्या ली बच्चों ने माता-पिता दुश्मन हो जाते हैं उनकी नजर में। दुश्मन भारी
शब्द है तो इसकी जगह कुछ और लिख लो बेशक ....लेकिन सच्ची बात तो यही है।
खैर, ये बात बेशक सड़क के एक दृश्य की है। परंतु घरों के अंदर ऐसा रोज होता
है। बच्चे माता पिता की किसी भी प्रकार की टोका-टाकी को अपने अधिकारों का
हनन समझ लेते हैं। वे यूं रिएक्ट करते हैं जैसे माता पिता ने उनको कुछ
निर्देश या आदेश देकर जुल्म कर लिया हो। वो भी ऐसे बच्चे जो पूरी तरह अपने
माता-पिता पर निर्भर हैं। जिनके पास घर की आर्थिक स्थिति के अनुसार हर
सुविधा है। बड़े स्टेटस वाला स्कूल। ड्राइविंग लाइसेन्स बेशक ना हो आने जाने
के लिए महंगी बाइक जरूर होगी। नए जमाने का वो मोबाइल....जिसका नाम भी मुझे
नहीं लिखना आता। चकाचक ड्रेस और बढ़िया पॉकेट खर्च। फेसबुक लिखना तो भूल ही
गया। इनमें से कुछ उसकी जरूरत है और कुछ नहीं भी। इसके बावजूद बच्चों के
पास वह होता है। क्योंकि कोई भी माता पिता ये नहीं चाहता कि बच्चे को कोई
कमी महसूस हो। यह सब तो बच्चों को देने का फर्ज माता-पिता का है। परंतु कुछ
कहने का हक उनको बिलकुल भी नहीं है। वो जमाना और था जब यह अधिकार
माता-पिता तो क्या चाचा,ताऊ और पड़ौसी तक को हुआ करता था। अब तो घर में
बच्चों के साथ रहना है तो मुंह बंद करके रहो। घर घर में बड़े अपने बच्चों के
चेहरे पढ़ते हुए दिखाई देते हैं। खुद का मूड चाहे कैसा भी हो बच्चों के मूड
की चिंता अधिक रहती है। पता नहीं आज कल के माता-पिता को संस्कार देने नहीं
आते या बच्चों को इनकी कोई जरूरत ही नहीं रही। जो बच्चे ऐसे हो रहे हैं।
वे अपनी दुनिया अलग ही बसा रहे हैं। उस दुनिया में माता-पिता का प्रवेश तो
वर्जित है ही साथ में किसी भी प्रकार की टोका टाकी भी प्रतिबंधित है।
प्रकाश की गति से भी तेज चल रहा समय और क्या क्या रंग दिखाएगा पता नहीं।
Thursday, 20 June 2013
गुड्डू बड़ी परेशान है...चन्नी को भी टेंशन
श्रीगंगानगर-गुड्डू बड़ी परेशान है। चन्नी को भी टेंशन है। दिक्षा की भागादौड़ी बढ़ी है। गुड्डू,चन्नी,दिक्षा ना तो किसी पोलिटिकल पार्टी की लीडर है और ना ही तबादले के मारे कोई अफसर। इन पर महंगाई का भी कोई भार नहीं है। ना ही इनको सुराज संकल्प या संदेश यात्रा के लिए कोई भीड़ जुटानी है। ये तो कान्वेंट स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियां हैं। इनको परेशानी अपनी रोज़मर्रा की पढ़ाई से नहीं। परेशानी है नित नए प्रोजेक्ट से। प्रोजेक्ट भी ऐसे जैसे ये छोटी छोटी कक्षाओं के विद्यार्थी ना होकर किसी प्रोफेशनल कॉलेज की पढ़ाकू हों। इनको सम सामायिक घटना पर खबर लिखनी है। खबर भी वो जिसमें कब,क्यूँ,कहां,कैसे,क्या,कौन जैसे प्रश्नों के जवाब हों। साथ में हो सरकारी पक्ष...जनता की राय, जिन पर घटना का अच्छा बुरा प्रभाव पड़ा हो। ये सब कोई एक दो पैरे में नहीं लिखना। किसी स्कूल ने बच्चों को 15 पेज लिखने के निर्देश दिये हैं तो किसी ने बीस। सब कुछ अंग्रेजी में होना चाहिए। अब ये विद्यार्थी लगी हैं खबर के जुगाड़ में। जिनका कोई मीडिया में जानकार...रिश्तेदार है वे उनसे मदद ले रहें हैं। कोई टीचर से लिखवा रहा है। बाकी सब के लिए इंटरनेट जिंदाबाद। जहां सब कुछ उपलब्ध है। हिन्दी में लो या अंग्रेजी में। अब जब ये बच्चे इंटरनेट से खबर ले प्रोजेक्ट पूरा कर भी लेंगे तो क्या होगा? इनका ज्ञान बढ़ेगा ! इनका मीडिया में सम्मान बढ़ेगा ! या ये इनके लिए कोई बेहतर भविष्य का दरवाजा खोल देगा ! कुछ भी तो नहीं होने वाला। बच्चे रुचि से नहीं बोझ मानकर इसको जैसे तैसे निपटाएंगे। ना तो उसे ये पढ़ने की कोशिश करेंगे ना समझने की। जरूरत भी क्या है उसको जानने की....समझने की। गर्मी की छुट्टी का काम है.....बस,पूरा करना है। खुद खबर लिखने वाला शायद की कोई हो। चूंकि बच्चे कोनवेंट स्कूल के हैं इसलिए अभिभावकों की इतनी हिम्मत नहीं कि वे टीचर से इस बारे में कुछ पूछ सकें। ना वे प्रिंसिपल के पास जाकर बच्चों की टेंशन दूर करने की कह सकते हैं। कहेंगे,पूछेंगे तो शान जाने का डर....क्योंकि स्कूल वालों को ये कहने में कितनी देर लगती है...”ऐसा है तो बच्चे को किसी दूसरे स्कूल में डाल दो।“ इसलिए लगे हैं सब के सब बच्चों के साथ उस बड़ी खबर का जुगाड़ करने में जो उन्हे स्कूल टीचर को देनी है। पता नहीं टीचर भी क्या सोच कर 15 पेज की खबर लिखने को देते हैं। कितने टीचर होंगे जो खुद 15 पेज की वैसी खबर लिख सकें जैसी उन्होने बच्चों से मांगी है। मीडिया से जुड़े व्यक्ति को भी 15 पेज की खबर लिखने के लिए बहुत कुछ सोचना और करना पड़ता है। ये तो अभी बच्चे हैं।
Saturday, 15 June 2013
गर्भ में ही शुरू हो जाती है जीव की यात्रा
श्रीगंगानगर- जीव के गर्भ में आते ही उसकी यात्रा शुरू हो जाती है। जीवन पूरा करने के बाद उसकी अंतिम यात्रा। इन दोनों यात्राओं के बीच जीव ना जाने कैसी कैसी यात्रा करता है। कोई काम की होती है कोई बेकाम ही। कई बार यात्रा निरर्थक हो जाती है तो बहुत दफा पूरी तरह सार्थक। कभी यात्रा का उद्देश्य होता है कभी ऐसे ही इंसान घूमता है बे मतलब ही। कभी अंदर की यात्रा तो कभी बाहर की। जीवन चलने का नाम जो है....जब जीवन में विभिन्न यात्राएं करनी ही है तो फिर सुराज संकल्प यात्रा क्यों नहीं! यह वसुंधरा राजे सिंधिया की यात्रा है। इसके साथ साथ सभी बीजेपी नेताओं की अपनी अपनी यात्रा भी है अलग से। नेता छोटा हो या बड़ा सब यात्रा पर निकले हैं। कई दिनों से यात्रा कर रहा है हर नेता। जरूरी भी है। नहीं करेगा तो मंजिल पर कैसे पहुंचेगा। चलना तो पड़ेगा....एक गाना भी तो है...तुझको चलना होगा,....तुझको चलना होगा। इसलिए चल रहे हैं....यात्रा कर रहे हैं। तो शब्द कह रहे हैं...सबकी अपनी अपनी यात्रा...इन नेताओं की यात्रा कहाँ जाकर रुकेगी ये वे खुद जानते हैं...या यात्रा के माध्यम से जान लेंगे। क्योंकि यात्रा से बहुत कुछ जाना जा सकता है। कितने ही विदेशियों ने हिंदुस्तान को जानने के लिए यहाँ की यात्रा की। पहले विद्यार्थियों को देशाटन पर ले जाया जाता था ताकि वे देश के बारे में जान सकें।.....तो साबित हुआ कि यात्रा जानकारी बढ़ाती है। इसलिए नेता निकले हैं अपनी अपनी यात्रा पर। वसुंधरा राजे बड़ी हैं तो उनकी यात्रा भी बड़ी। ऐसी ही स्थानीय नेताओं के बारे में कहा जा सकता है। जो जैसा नेता...जिसकी जैसी पकड़ उसकी वैसी ही यात्रा। किसी ने दो गली नापी किसी ने दो गांव। कोई दो घर ही जा पाया कोई घर घर गया। किसी ने यात्रा पर काफिला बनाया किसी के साथ कोई नहीं आया। कोई यात्रा पर निकला तो सभी को बुला लिया। कोई ऐसा भी था जो बुलाने तो गया लेकिन लोग नहीं आए...आए तो दूसरे स्टेशन पर उतर गए। कितने ही यात्रा पूरी होने से पहले ही थक जाएंगे। हिम्मत छोड़ देंगे। अकेले रह जाएंगे। उनके साथी दूसरे के साथ चले जाएंगे। किसी की यात्रा आनंदमय होगी किसी की कष्टदायक। यात्रा होती ही ऐसी है। इसलिए फिलहाल जो किसी की यात्रा में शामिल नहीं हैं वे सभी की यात्रा का अवलोकन करें। देखें, किसका सांस फूला। कौन सांस भूला। किसकी सांस में सांस आई। किस की धड़कन बढ़ी। किसकी लौटी। कौन थका। कौन बैठा। कौन कम है....किसमें दम है। याद रहे, ये छोटी छोटी यात्रा वसुंधरा की बड़ी यात्रा में विलीन हो जाएगी। ठीक वैसे जैसे नदियां समंदर में समा जाती हैं। समंदर मंथन हुआ तो बहुत कुछ निकला था। अब यात्रा का मंथन होगा। उसमें से टिकट निकलेगी। एक को मिलेगी। बाकी साथ हो जाएंगे या उत्पात मचाएंगे।.....तो यात्रा जारी है...नेताओं की भी और जीव की भी।
Friday, 24 May 2013
निक्कर संस्कृति की ओर बढ़ता श्रीगंगानगर
श्रीगंगानगर-तीन दृश्यों का जिक्र कर आगे
चलेंगे।दृश्य एक- युवती के दोनों हाथों में
ऊपर तक काफी चूड़ियां....सुर्ख लाल सफ़ेद...शालीन ड्रेस...खूब सिंगार और चलने की अदा बता रही थी कि शादी को अधिक समय
नहीं हुआ।साथ में टी शर्ट/शर्ट निक्कर पहने हुए पति जी।दृश्य दो-धार्मिक आयोजन....युवती कुछ अधिक
ही स्लीव लैस जम्पर वाले पहनावे के साथ पति के संग आई.....दरबार में मत्था टेकना है ताकि आयोजक को आने की जानकारी हो...वहां तक जाने में झिझक.... किसी से दुपट्टा
लिया...सिर और कंधे ढके तब मत्था टेका। दृश्य तीन-एक कोचिंग इंस्टीट्यूट
में जाने का मौका मिला। कुर्सी पर लगभग पसरे हुए युवक से,जिसकी शर्ट का ऊपर का बटन
खुला हुआ आता, परिचय करवाया
गया....ये जी के पढ़ाते हैं। हमने
वही तो देखा जो था। इसलिए ना तो नजर खराब
है और ना नीयत। कभी कभी ऐसा लगता है कि निक्कर श्रीगंगानगर की संस्कृति बन गई।
निक्कर कभी पांच-सात साल के बच्चे पहना करते थे। अब युवक अपनी नई नवेली पत्नी के
साथ इसे पहन सड़क पर घूमते हैं। सफर करते हैं। एक दूसरे के घरों में
आते जाते हैं। कोई हिचक नहीं....कोई झिझक नहीं। रात को या घर के
लिए बना पहनावा सड़क पर आ गया। दूसरे दृश्य के बारे में कुछ कहेंगे तो आप कहोगे, धर्म तो आस्था और विश्वास की बात
है....पहनावा कैसा भी हो क्या
फर्क पड़ता है। मन में श्रद्धा होनी चाहिए। कोई फर्क नहीं पड़ता जी। लेकिन वो हो तो आयोजन
के अनुरूप। इसमें कोई शक नहीं कि आपको कोई टोकेगा नहीं...लेकिन इसका ये मतलब तो
नहीं कि आप दिवाली पर फाग गाओ। आपको दुपट्टा मांग कर मत्था टेकना पड़े। खुद को अटपटा लगा तभी तो दुपट्टा मांगना पड़ा।
अगर आयोजन के अनुरूप ड्रेस होती तो ऐसा नहीं करना पड़ता। कोई फैशन शो
है....सौंदर्य प्रतियोगिता है.....तब तो आपको अलग बात है। यही बात टीचर की। उसका बैठने,उठने,चलने और हर आचरण
में शिक्षक दिखना चाहिए...झलकना चाहिए। शिक्षक का अपना महत्व है। वह समाज का पथ प्रदर्शक होता है। उसके मान सम्मान में एक आदर
का भाव भी सम्मिलित रहता है। बच्चा शिक्षक की गलती से बताई,समझाई गलत बात को भी सही मानेगा। इससे अधिक उसकी महता क्या
होगी! बात बेशक छोटी सी हैं। परंतु ये हैं वो जो हमारे समाज में आ रहे बदलाव को
बताती हैं। ये शुरुआत है तो अभी बहुत कुछ देखना बाकी है। ऐसा कुछ जो इससे भी आगे
की कथा कहने को “प्रेरित: करेगा।
Friday, 10 May 2013
तुम खुद को छलते हो
धरा पर गर्जन करते
समंदर का निर्माण
तुमने किया है,
गंगा,यमुना,सरस्वती को
रास्ता तुमने दिया
है,
सृष्टि को जीवंत
करने वाले
दिन को जरूर
तुमने ही बनाया होगा,
रात को चांद तारों
से झिलमिल
आकाश को धरती के ऊपर
तुम्ही ने सजाया
होगा,
सैकड़ों किस्म के
मनभावन फूल
तुमने ही खिलाए
होंगे,
दिलकश रंग भर के ये
सब
तुमने ही महकाए
होंगे,
प्यारे सलोने
परिंदों ने
तुमसे ही सीखा होगा
उड़ान भरना,
अपनी मीठी बोली से
तुम्हारे ही दिल में
बसना,
तुम जानते हो ये सब
तुम्हारे बस में बिलकुल नहीं है,
तुम तो बस
रूप बदलने में माहिर
हो,
रूप चाहे खुद का हो या
प्रकृति के उपहारों
का,
रूप बदल तुम
अकड़ के चलते हो
किस और को नहीं
तुम खुद को छलते हो।
Tuesday, 7 May 2013
अन्ना हज़ारे तो टीवी में ही बढ़िया लगते हैं!
Tuesday, 30 April 2013
अपनी बीबी को इंप्रेस करने की कोशिश ना करो
श्रीगंगानगर-- आ गई पत्नी सफर से।
बैग रखा और घर को निहारा...साफ था एकदम से घर...फिर रसोई में गई....सब कुछ अपने
स्थान पर....बर्तन साफ करके अलमारी में रखे हुए थे....सिंक चमाचम थी। अचरज था
चेहरे पर...इधर उधर अलमारी,दराज खोली....देखी...सब ओके। मुस्कराते
मुखड़े के साथ मेरे गले लग गई। कंधे पर पानी की बूंद गिरी। मैंने पूछा,क्या हुआ। सफर तो ठीक था। किसी से कोई बात तो नहीं हुई। वह हंसते हुए बोली,जी सब ठीक है। ये तो खुशी के आंसू थे। मुझे तो आज मालूम हुआ कि आपको इतना
काम आता है। कमाल है....कभी आपने जिक्र ही नहीं किया। मैं तो ऐसे ही बाई बाई का
वहम पाले हुए थी। अब बाई रखने की बात कभी
नहीं करूंगी। मैं भावुक हो गया...बोल दिया....ये तो तुम हो...जिससे कभी विचार नहीं
मिले फिर भी ऐसा और इतना काम कर दिया....अगर मेरी शादी तुम्हारी बजाए उससे हुई
होती तो....बस बिगड़ गया काम। मुस्कान गायब होनी ही थी...आलिंगन की कसावट भी जाती
रही फिर आलिंगन भी। उससे किस से...बीबी का तीखा प्रश्न आया। अब क्या इस प्रश्न का
जवाब तो कोई नहीं दे सकता। मामला बिगड़ना ही था। जो घर बीबी के आने से मस्त लग रहा
था वह उसके गुस्से से त्रस्त हो गया। जो बर्तन साफ थे उसमें चिकनाई नजर आने लगी।
सिंक की चमचमाहट लुप्त हो गई। उन कपों की गिनती हो गई....पता लग गया कि एक टूट
गया। झल्लाहट चेहरे पर लाकर बोली,खाक काम किया है घर का। दो
दिन घर से बाहर क्या गई....घर का हुलिया बिगाड़ दिया। अभी थोड़े दिन पहले लाई थी कुछ
कप..... । दो दिन में तोड़ दिया....हमे देखो,सालों काम करते
हुए हो गए...दो चार ही टूटे होंगे अब तक। [बीबी के ऐसे मूड में ये तो कैसे कहता कि
तुम्हें तो अनुभव है] बात गंभीर हो चुकी थी। संभालनी थी...मैंने सफाई दी...अरे वो
कोई है ही नहीं। तुम सोचो...वो होती तो कभी तो आती...कभी दिखती...फोन करती...कोई
संदेश आता....तुझे मिलती...पर ऐसा है ही नहीं ना। बीबी ने क्या सुनना था। एक जरा
सी बात पर बना बनाया खेल बिगड़ गया। एक तो घर का काम किया। ऊपर से नया बखेड़ा हो
गया। बीबी को इंप्रेस करने के चक्कर में इज्जत जाने का खतरा तो हो ही गया। बीबी की
बड़बड़ जारी थी। लेकिन इस घटना से नए सबक तो मिल ही गया। पहला सबक तो ये कि बीबी
बाहर जाए तो घर काम मत करो...ऐश करो...घर की और बर्तन की सफाई करने की जरूरत नहीं।
दूसरा कोई मेरे जैसा दयावान कर भी ले काम तो बीबी के लाड में आकर वो न कहे जो
मैंने कह दिया। बरना घर का माहौल बिगड़ जाने की आशंका है। बाकी आपकी मर्जी। आज के
दौर की दो लाइन पढ़ो---मन के भाव डगमगाने लगे हैं,घर में पैसे
आने लगे हैं।
Tuesday, 23 April 2013
किसी को किसी की जरूरत ही नहीं रही अब
श्रीगंगानगर-इंसान को खुद के अंदर ही
नहीं गली मोहल्ले तक में अकेलापन महसूस होता है। भीड़ में भी ऐसे लगता है जैसे कोई
तो हो जो बात कर सके उसके मन की। बदलते परिवेश भाग दौड़ भरी दिनचर्या ने सभी को ऐसे
ही किसी ना किसी मोड़ पर ला खड़ा किया हुआ है। जहां सभी है तो अकेले लेकिन फिर भी कोई किसी का हाथ पकड़ना नहीं चाहता। आलिंगन करने
की इच्छा नहीं रखता। फेसबुक पर घंटों अंजान “दोस्तों” से वार्ता कर लेगा परंतु
पड़ौसी से फेस टू फेस बात नहीं होती। इस स्थिति में भी सभी खुश और मस्त दिखते तो हैं।
सच में हैं कि नहीं वे खुद जाने। और हैं तो कितने हैं ये उनका दिल जानता है। बात
अधिक पुरानी नहीं है। मोहल्ले में रात को एक बुजुर्ग इस संसार से प्रस्थान कर गए। सब
गए सूरत दिखाई...हाथ जोड़े...कहा,कोई
काम हो तो बताना। रात बीत गई। सुबह आ गई.....मोहल्ले में लगता ही नहीं था कि दो
चार,पांच मकान आगे किसी घर में बुजुर्ग का मृत शरीर रखा है।
अंतिम क्रिया होनी है। सब के सब अपने अपने काम में व्यस्त। घर घर की वही
दिनचर्या....वही स्नान ध्यान...पूजा....मंदिर जाना....नाश्ता....सैर....कुत्ते को
घुमाना....झाड़ू-पौचा....सफाई.... । किसी काम में कोई परिवर्तन नहीं। कोई समय का
बदलाव नहीं। इतना ध्यान जरूर था कि इतने बजे मृत शरीर की अंतिम यात्रा शुरू होगी।
उससे पहले पहले जरूरी काम निपट जाए तो ठीक रहेगा। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। कोई
अंजान व्यक्ति गली में दाखिल हो तो उसे पता ही ना लगे कि गली में किसी की मौत हुई
है और थोड़ी देर में संस्कार होना है। पता लगे भी तो कैसे....गली में कोई उदासी
नहीं...कोई खामोशी नहीं...वही हलचल...वही बोलचाल....। वही टीवी की
आवाज....गाने...मज़ाक....। ऐसा पहले नहीं होता था। गली में मौत होने पर हर घर की
दिनचर्या थोड़ी बहुत बदल जाती थी। शोक महसूस होता था गली मोहल्ले में। क्या मजाल की
कोई बच्चा टीवी,रेडियो की आवाज ऊंची कर दे। ठहाके तो दूर तेज
आवाज में बोलना तक असभ्यता हो जाती थी। किसी महिला को मंदिर भी जाना होता तो थोड़ा
छिप छिपा के। गली में घुसते ही सबके चेहरे खूब ब खुद गमजदा हो जाते। अब तो ये सब
कहानी सी लगती है। साथ वाले मकान के लोग ही परवाह नहीं करते। ज्यादा हुआ तो
चाय-पानी भेज दिया,ले गए...बस और क्या तो। ये बदलाव एकदम से
ही हमारे सामने आ खड़ा हो गया हो ऐसा नहीं है। धीरे धीरे आया....शुरू में तो आभास
नहीं हुआ....सामान्य बात लगी....अब यह बदलाव दिखने लगा...। चूंकि ये जंगल नहीं
समाज है इसलिए अकेलापन सभी को कचोटता है।अभी तो क्या कचोटता है....अभी तो इस से भी
अधिक एकांत के क्षण आने वाले हैं। ये क्षण...हमने खुद चुने हैं। क्योंकि हम अकेले
रहना पसंद करते हैं।किसी को किसी की जरूरत ही नहीं रही। दो लाइन पढ़ो..... रिश्ते वो जो हों काम के, बाकी सब बस सलाम के।
Tuesday, 9 April 2013
छोटे कद की बड़ी महिला बलविंदर कौर कुन्नर
श्रीगंगानगर-इन शब्दों के साथ जो चित्र है वह
बनावटी नहीं असली है। असली मतलब छाज ,चक्की,छलनी,चादर,चने,दाल इस महिला के आस पास चित्र खींचने के लिए नहीं सजाए गए। सब नच्युरल है।
यह महिला सामान्य रूप से काम कर रही थी और फोटो ले ली गई। यह महिला है बलविंदर
कौर। कौन बलविंदर कौर?स्वाभाविक प्रश्न है। गुरमीत सिंह
कुन्नर [वर्तमान में राजस्थान के कृषि विपणन मंत्री] की पत्नी बलविंदर कौर।छोटे से
कद की इस महिला को बाजार में थैला हाथ में लिए कुछ ख़रीदारी करते देखो तो अचरज करने
की बात नहीं। क्योंकि बलविंदर कौर सम्पूर्ण गृहणी हैं। दूसरी महिलाओं की तरह। पति दशकों
से राजनीति में हैं लेकिन इनको राजनीति से कोई लेना देना नहीं। आज तक किसी
राजनीतिक कार्यक्रम में इनको नहीं देखा गया। आम ग्रामीण महिलाओं की तरह तड़के उठना।
रसोई,दूध,दहीलस्सी का काम। जयपुर हो या
गाँव में, मंदिर,गुरद्वारे जाना बिना
नागा। शनिवार को सुबह कटोरी में सरसों का
तेल लेकर वहां आना, जहां गुरमीत सिंह कुन्नर बैठे होते,उनको तेल में चेहरा देखने को कहना....और फिर शनि मंदिर जाना। कितनी ही बार
देखा है मैंने। 18 फरवरी 1972 को इनकी शादी गुरमीत सिंह कुन्नर से हुई। उसके बाद गुरमीत सिंह कुन्नर के घर में धन,दौलत,मान सम्मान की कोई कमी नहीं रही। हर वक्त हल्की
मुस्कान चेहरे पर। राजनीति की बात करो तो यही कहतीं हैं....ये अपना काम कर रहें
हैं मैं अपना। इनको राजनीति से फुरसत नहीं और मुझे घर से। राजनीति से कोई
शिकायत.....नहीं, क्योंकि जन जन की सेवा करने का मौका किसी
किसी को ही मिलता है,उनका जवाब था। वे कहतीं है,बहुत खुश हूं जिंदगी से। भगवान ने सब कुछ दिया है....और क्या चाहिए। रोटी-सब्जी
खुद बनाती हैं। काम से फुरसत मिल जाए तो
कपड़ों की सिलाई भी हो जाती है। सरसों का साग और कढ़ी बनाने में कोई जवाब नहीं। बलविंदर
कौर को राजनीति में कोई रुचि नहीं। पति राजनीति में हैं तो एतराज नहीं। दोनों अपने
अपने फील्ड में जमे हैं। राजनीति में आने की कोई संभावना नहीं है इनकी। एक खास
बात....। मंत्री की पत्नी होने का कोई गरुर कभी चेहरे पर नहीं। हमेशा हर समय वही
चेहरे पर हल्की सी मुस्कान। एक बार कुन्नर दंपती की शादी की वर्ष गांठ थी। बलविंदर
कौर जयपुर से गाँव आ गईं...। 17-18 फरवरी की रात को बलविंदर कौर ने पति गुरमीत
सिंह कुन्नर को एसएमएस कर दिया बधाई का। गुरमीत सिंह कुन्नर 18 फरवरी की सुबह
जयपुर से रवाना होकर गाँव पहुँच गए। परिवार में अपनी शादी की वर्ष गांठ मनाने के
लिए।
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