श्रीगंगानगर-अद्भुत। आश्चर्यजनक। अकल्पनातीत। वंडरफुल। अहा!
क्या बात है। वाह! क्या संस्कार है,सोच है। मतलब
परस्त,अविश्वास से भरी और भौतिकवादी सोच से लबरेज समझे जाने वाले इस
समाज में ऐसा भी संभव है। पढ़ा हो तो कहानी समझ कर भूल जाएं। कोई सुनाए तो विश्वास ही ना हो।
लेकिन यह सब हुआ जो यहाँ लिखा गया है। दोपहर 12 बजे का समय। पॉश क्षेत्र। एक बुजुर्ग
साइकिल पर एक बैग टांगे किसी का घर पूछ रहा था। मुझसे भी पूछा,लेकिन मैं खुद उसका घर फोन पर पूछ रहा था जिसके पास जाना था।
मुझे घर मिल गया क्योंकि वह बंदा बाहर आ गया, जिससे मिलना
था। बुजुर्ग ने उससे भी “...”
का घर पूछा। बंदे ने बता दिया....लेकिन एक
क्षण बाद ही वह बोला,बाबा आप धूप में हैं अंदर आ जाओ....
। आया तो मैं था मिलने...अब साथ में वह
बुजुर्ग भी हो गया। थका सा। उदास चेहरा। निढाल। सजे धजे शानदार ड्राइंग रूम में बैठ गए। मुझसे बात शुरू होती इससे पहले
उस बंदे ने बुजुर्ग का हाथ अपने हाथ लिया और बोला...आप उदास क्यों हो...क्या बात
है...क्या परेशानी है...सब कुछ बताओ.....दिल खोल
कर कहो....सब ठीक होगा। इतना बोल बंदा काम वाली
को ठंडा दूध लाने की आवाज लगाता हुआ कमरे से बाहर चला गया। बुजुर्ग की आँख भर
आई। दिल रोने लगा..... मैंने पूछा....आप इसको कभी मिले।
बुजुर्ग बोला नही,कभी नहीं। मेरा दूसरा सवाल था...आपको कैसा लगा जब उसने आपका हाथ अपने हाथ में लेकर परेशानी पूछी ? बुजुर्ग ने जेब से रुमाल निकाला। आँख में आए स्नेह और खुशी के
आंसुओं को उसमें सहेजा और फिर बोला... आज तक मेरे किसी बच्चे ने इस प्रकार से मुझसे प्यार,अपनापन नहीं दिखाया। इसने बिना जान पहचान के यह किया। घर का मालिक वह बंदा वापिस ड्राइंग रूम में आया। साथ में दो गिलास दूध लिए
काम वाली भी थी। ठंडे
दूध
का गिलास उसको देकर बंदा फिर बुजुर्ग से कहने लगा लगा....खोल दो
मन की सारी गांठ....आज हँसना है...पिकनिक मनानी
है। हालांकि बुजुर्ग ने बताया कि उसके तीन बच्चे हैं...सब सैट हैं। किन्तु उस बंदे ने बुजुर्ग का हाथ अपने हाथ में लेकर
उसके चेहरे की उदासी में जैसे कुछ पढ़ना
शुरू किया।बंदा बोला,मेरी आँख में आँख डाल कर कहो सब ठीक
है। बुजुर्ग की आँख फिर भीग गई...शब्द गले
में रुक गए....उसने कुछ कहने की बजाए उस
बंदे का हाथ स्नेह,लाड़,दुलार
से चूम लिया। बंदे के स्नेह से लबरेज अपनेपन ने बुजुर्ग का पीछा नहीं छोड़ा....आपका मोबाइल नंबर दो आपसे बात करूंगा....घर आऊंगा। यह सब कुछ मिनट
में ही हो गया। जो कुछ मिनट पहले एक दूसरे से अंजान थे वे परिचित हो गए। दोनों की
उम्र का फासला...स्टेटस में फर्क...किन्तु सब मिटा दिया उस बंदे ने। अपने शब्दों से। अपनेपन से। ऐसा लगा जैसे कोई मासूम बालक अपने घर के किसी बुजुर्ग से जिद कर रहा है कुछ देने की,बड़ी ही मासूमियत के साथ। पता नहीं वह कौन है....कोई फ़ैमिली काउन्सलर या कोई टीचर। पथ प्रदर्शक या फिर अपने मालिक (ईश्वर) की धुन में खोया कोई दीवाना।
या
इंसान के रूप में किसी मालिक का कोई
दूत। मैंने कभी इस प्रकार से दो अंजान
व्यक्तियों को परिचित होते नहीं देखा। मुझे तो उससे पहली बार मिलने का मौका मिला
था। मिला क्या था! मिलना तो उनका ही था। मुझे तो बस साक्षी की भूमिका मिली थी यह
सब लिखने के लिए। उसी बंदे की दो लाइन से
बात को विराम देंगे.... साड्डी दोस्ती है दोस्तो सवेरैयां
दे नाल,कोई साड्डा कम्म नई अंधेरैयां दे नाल।
हर इन्सान हर पल किसी ना किसी उधेड़बुन में रहता है। सफलता के लिए कई प्रकार के ताने बुनता है। इसी तरह उसकी जिन्दगी पूरी हो जाती हैं। उसके पास अपने लिए वक्त ही नहीं । बस अपने लिए थोड़ा सा समय निकाल लो और जिंदगी को केवल अपने और अपने लिए ही जीओ।
Saturday, 22 September 2012
Wednesday, 19 September 2012
श्रीगंगानगर की ओफिसियल वेबसाइट में महाराजा गंगा सिंह का जिक्र तक नहीं
श्रीगंगानगर-श्रीगंगानगर की ओफिसियल वेबसाइट “श्रीगंगानगर डॉट निक डॉट इन” में महाराजा गंगा सिंह का जिक्र तक नहीं है। हिन्दी,अंग्रेजी,पंजाबी और राजस्थानी में श्रीगंगानगर क्षेत्र के बारे में जो थोड़ी बहुत जानकारी दी गई है वह भी अलग अलग है। जो अंग्रेजी में है वह पंजाबी में नहीं। जो राजस्थानी में है वह हिन्दी में नहीं।अंग्रेजी में एक दर्जन लाइन में श्रीगंगानगर की जानकारी है तो हिन्दी में केवल साढ़े छः लाइन। ऐसा लगता है कि या भिन्न भिन्न विचारों वाले व्यक्तियों से लिखाया गया है। जिसको श्रीगंगानगर जैसा दिखा,लगा वैसा लिख दिया श्रीगंगानगर के बारे में। सरकारी वेबसाइट ही तो है....क्या फर्क पड़ता है। वेबसाइट में लिखा है कि श्रीगंगानगर दो भागों में है...एक व्यावसायिक क्षेत्र दूसरा रिहायशी। लिखने वाले ने शायद सालों से श्रीगंगानगर शहर का भ्रमण नहीं किया। या फिर वे समझ नहीं सके नगर के मिजाज को। क्योंकि अब तो रिहायशी क्षेत्रों में भी बड़े बड़े बाजार बन चुके हैं। दो भागों वाली बात दशकों पुरानी हो सकती है। इस बात का जिक्र राजस्थानी में है कि श्रीगंगानगर कभी रामनगर हुआ करता था। पंजाबी,अंग्रेजी और हिन्दी में इसका उल्लेख नहीं है। इस वेबसाइट में 16 चित्र भी चिपकाए गए हैं। चित्रों में सूरतगढ़ का थर्मल स्टेशन है। अंध विद्यालय को अनेक चित्रों के माध्यम से दर्शाया गया है। इस नगर से अंजान व्यक्ति उन चित्रों को देखे तो उसको मालूम ही ना हो कि वे किसके चित्र हैं। उनका क्या महत्व है। क्योंकि इन चित्रों के नीचे ऊपर कुछ लिखा ही नहीं। बस चित्र लगा दिये। सबसे हैरानी की बात तो ये कि इन चित्रों में दर्शन कोडा चौक का चित्र तो है। केदार जी भी हैं। लेकिन महाराजा गंगा सिंह का नाम कहीं नहीं है। जिनके नाम पर श्रीगंगानगर की स्थापना की गई थी। जब नगर को बसाने वाले का चित्र ही नहीं तो फिर महात्मा गांधी,भगत सिंह,बी आर अंबेडकर,बीरबल चौक, लाल बहादुर शास्त्री की अलग अलग स्थानों पर लगी प्रतिमाओं के चित्र वेबसाइट पर लगाए जाने की कल्पना करना ही मूर्खता है। दर्शन कोडा का इतिहास बताओ....कौन रोकता है?लेकिन महाराजा गंगा सिंह,भगत सिंह,महात्मा गांधी....के बारे में जानकारी देने में कोई हर्ज है क्या! राजस्थान की सबसे बड़ी निर्यातक इकाई विकास डब्ल्यूएसपी का कहीं नाम नहीं है। होटल की लिस्ट बहुत पुरानी है। श्रीगंगानगर में लगातार क्या बदलाव हुए या हो रहें हैं। इसके बारे में दो चार पांच लाइन होती तो थोड़ी जान पड़ती वेबसाइट में। इसकी वजह भी है...वह यह कि नगर के दक्षिण और पूर्व में प्राइवेट कालोनियों का विकास। जिनको लोग देखने जाते हैं। वेबसाइट होती ही इसीलिए है कि हजारों मील दूर रहने वाला भी किसी भी विषय के बारे में सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ जान सके। इस सरकारी वेबसाइट की तो बात ही निराली है। कई भागों में विभाजित इस वेबसाइट के माध्यम से लोग प्रशासन के बारे में तो संभव है बहुत कुछ जा सकें लेकिन श्रीगंगानगर के बारे में नहीं। शायद इसको अप डेट करने वालों को या तो फुर्सत नहीं। फुर्सत है तो कोई बताने वाला नहीं। या फिर किसी को प्रशासन से अधिक किसी में रुचि नहीं। हां,अब समाचार प्रकाशित होने के बाद इस और कोई गंभीरता दिखाई जाए तो बात अलग है।
Sunday, 9 September 2012
रिश्ते! कभी गुड़ से मीठे कभी नीम से कड़वे
श्रीगंगानगर-इंसान हूं। दिल
कमजोर है। कई बातें अंदर को झकझोर देती हैं। दिलो दिमाग में हा-हा कार मच जाता है।
घटना सुनने से ही वो सब बाते कल्पना बन के सामने आ खड़ी होती हैं जो आँखों ने देखी नहीं होती। मन यह सोचने के सिवा कुछ नहीं
कर पाता की क्या ऐसा भी होता है। होता है तभी तो हुआ....फिर भी जिंदा हैं हम। क्योंकि मरे नहीं हैं। ये कहना बेमानी है कि ऐसी
जिंदगी का क्या मतलब....ऐसी जिंदगी का भी कोई अर्थ है। है, ऐसी ज़िंदगी
का मतलब भी और अर्थ भी। लेकिन ये सभी को कहाँ दिखता
है। आसान
ज़िंदगी तो सभी जी लेते हैं। ऐसे भी तो हों जो मुश्किलों में से ज़िंदगी को निकालते
और जीते हैं। बात ऐसे ही शुरू नहीं की। एक युवती है पूरे दिनों से। कई माह से पीहर
में।पता नहीं क्या हुआ उसके साथ पति से इस हद तक नफरत करती
है कि उसका नाम तक भी लेना नहीं चाहती। किन्तु
वाह रे भारतीय नारी....इसके बावजूद उसकी खुशी की दुआ करती है। बच्चे ने समय पर
होना ही है.....माँ की गोद तो होगी...पिता का दुलार कब मिलेगा, क्या पता। अच्छे घर की बहू
अपनी छोटी सी बेटी को ले पीहर जा बैठी। गई थी सामान्य रूप से अब आना नहीं चाहती। ससुराल में सुबह से लेकर शाम तक जो भी करना वह
फोन पर माँ से पूछ कर। कैसे रहना है ....यह उसको
माँ समझती। पति से कैसे बर्ताव करना है यह माँ सिखाती। ससुराल वालों ने समझाया तो बस.....ना
आती है....ना कुछ नक्की होता है। हो गई
मुश्किल, एक परिवार को नहीं,लड़का
–लड़की दोनों के परिवारों को। सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रश्न है। बच्चों की ज़िंदगी का सवाल है। नाव बीच में हैं। इस किनारे
लगे या उस किनारे। बीच में रहेगी तो सौ प्रकार की आशंका। कोई बड़ी भयानक लहर नाव को
उलट-पलट ना दे। समुद्री जीव जन्तु का ग्रास ना बन जाएं। किनारे पर पहुँचने की बजाए
कहीं रास्ता भटक कर ऐसे ही ज़िंदगी की शाम
हो जाए। इस प्रकार की स्थिति में सुखद कल्पना नहीं होती...आशंकाएं ही रह रह कर
दिमाग में आती हैं। सकारात्मक सोच की फिलोसफ़ी यहां फेल हो जाती है। तीसरी बात सुनो....सालों से पति-पत्नी परिवार के साथ
रहते हैं। विडम्बना,विवशता देखो कि दोनों के विचार पहले दिन
से नहीं मिले। पसंद
जुदा। सोच भिन्न। इसके बावजूद एक ही छत्त के नीचे घर में रहते हैं। सामाजिक
ज़िम्मेदारी भी निभाते हैं और घर भी चलाते हैं। रिश्ते कभी गुड से भी मीठे और कभी नीम से अधिक कड़वे। जिंदगी चल रही है। क्योंकि यह समाज है। सामाजिक बंधन निभाने पड़ते हैं। इसलिए नहीं कि हम मजबूर हैं। कोई और रास्ता भी नहीं।
इसलिए
भी कि हमारे साथ हमारे परिवार,रिश्तेदार को भी समाज में रहना है। जिंदगी को जीना है। रिश्तो को
बीच में तोड़ कर,छोड़ कर जी तो सकते हैं किन्तु वह
ज़िंदगी अधूरी होती है। एक से नाता तोड़ दूसरे से जोड़ कर भी जिंदगी को जिया जाता है किन्तु उसके साथ पुरानी ज़िंदगी का
साया साथ चलता है। जो ना जीने देता है और ना मरने। अब पति-पत्नी के झगड़े निपटाए भी
कौन। खुद ही निपटा सकते हैं। देर कितनी लगती है। बस कोई एक कदम बढ़ा दे तो बात बन
जाए। यही एक कदम मुश्किल हो जाता है बढ़ाना। क्योंकि अहम बहुत दूर जो ले आया है। ये बेशक घर घर की कहानी नहीं होगी....लेकिन हमारे आस पास ऐसी अनेक कहानियां बिखरी हैं। जिनको समेटने वाला आज कोई मुखिया किसी गली में नहीं
रहता। “कचरा”पुस्तक
की लाइन है--- तुम करते रही दिल्लगी ,हम लुटाते रहे प्यार ,मैं तो नादां था चलो ,तुमने भी तो नहीं किया इंकार।
Friday, 7 September 2012
देवी के चमत्कार ने बनाया मनमोहन को दिव्य पुरुष
श्रीगंगानगर-ईमानदार
आदमी। ख्यातिप्राप्त अर्थशास्त्री।सज्जन
पुरुष। बेदाग इंसान। चरित्रवान नेता। ये सभी गुण प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह में हैं। इसमें किसी को कोई शंका नहीं हो सकती। इसके बावजूद यह भी सच है कि जितना अपमान, बेइज्जती, आलोचना और निंदा मनमोहन सिंह की हुई है या हो रही है आज तक राजनीति के इतिहास में
किसी की नहीं हुई होगी,वह भी
राष्ट्रीय स्तर से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक। एक से एक आलोचनात्मक आलेख। मनमोहन की मनमोहिनी छवि
का मज़ाक उड़ाते कार्टून। भद्दे मज़ाक
वाले चित्र। कभी मुंह पर कीचड़ तो
कभी कालिख। ऐसा तो किसी छोटे मोटे नेता, भ्रष्ट से भ्रष्ट मंत्री, चरित्रहीन इंसान के
साथ भी नहीं हुआ जितना प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ हो रहा है। वर्तमान में सबसे बुरा किसी
के बारे में कहा जा रहा है तो वह है भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह। महान भारत
के अद्भुत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह। अभूतपूर्व हिंदुस्तान के अभूतपूर्व प्रधान मंत्री
मनमोहन सिंह । अद्भुत और अभूतपूर्व इसलिए कि पूरा देश उनको जो कुछ कह सकता था कह
रहा है इसके बावजूद उन पर कोई असर नहीं। मान-अपमान से बिलकुल दूर स्थितप्रज्ञ। ऐसे
महापुरुष जिसे सुख-दुख,आलोचना-प्रशंसा,निंदा से कोई मतलब नहीं। जिस स्थिति में पहुँचने के लिए
ऋषि-मुनियों को सालों ताप करना पड़ता है। दशकों तक अपने आप को तपस्या में तपाना पड़ता है। वनों की खाक छाननी पड़ती है। कन्दराओं में निराहार रहना पड़ता है।
तब कहीं सैंकड़ों में कोई एक इस स्थिति तक पहुंचता है। मनमोहन सिंह कुछ साल राजनीति
में रहकर वहां पहुँच गए। हिंदुस्तान की जनता तो धन्य हो गई ऐसी महान आत्मा
को पाकर। ऐसे युग पुरुष को
प्रधानमंत्री बनाकर। चरण रज माथे पर लगानी चाहिए
ऐसे दिव्य पुरुष की। क्योंकि ऐसी आत्मा हजारों सालों में भारत की भूमि पर ही जन्म
लेती हैं। पूजा करनी चाहिए ऐसे अलौकिक आत्मा की जिसने इस भारत की इस धरती को अपने
कर्मों से पुष्पित और पल्लवित किया। मनमोहन सिंह जैसे देवता पुरुष को मोटी चमड़ी का
कहना तो शब्दों को विकृत करना है। भला वे कैसे ऐसे हो सकते हैं। वे तो साधु हैं।
संत हैं। महात्मा हैं। दिव्य आत्मा हैं। जो एक देवी के आशीर्वाद से इस मुकाम पर
पहुंचे हैं। यह सब देवी का चमत्कार है। जिसने एक इंसान को ऐसा ज्ञान दिया कि वह मान
–अपमान से ऊपर उठ गया। ऐसा मंत्र दिया कि उन पर
आलोचना-प्रशंसा भी प्रभावहीन हो जाती हैं। मौन को साधने में कितनी साधना करनी पड़ती
है। लेकिन देखों मनमोहनसिंह का कमाल,देवी के दर्शन मात्र से मौन
उनका गुलाम बन गया। युगों युगों तक इस मौन की गाथा गई जाएगी।
Monday, 3 September 2012
बेटी बचाओ,.ताकि लड़के उनको छेड़ सकें !
श्रीगंगानगर-“कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ अभियान”। “बेटी बचाओ आंदोलन”। “नारी शक्ति के लिए रैली”। और भी बहुत कुछ....ये....वो..... । किसलिए
ताकि जब हमारी बेटी,बहिन,भतीजी...बड़ी हो जाए तो उनको समाज के बिगड़ैल लड़के
छेड़े। उनको आते जाते रास्ते में रोक कर परेशान करें। और उसकी मजबूरी देखो
ना तो वह यह बात घर में बता सकती है और ना खुद कुछ करने में सक्षम। घर बताए तो
माता,पिता,भाई,चाचा...को टेंशन। कुछ करें तो मुश्किल....काम धंधा रुक जाएगा...कोर्ट
कचहरी के चक्कर....लड़की की बदनामी...लड़ाई झगड़ा। परिवार कुछ ना
करे तो और मुश्किल,,,लड़की को टेंशन...या तो लड़कों की अच्छी बुरी बातें सुने.......या घर से निकलना छोड़
दे। महिला सशक्तिकरण को लगे गोली। इज्जत है तो
सब कुछ है। वह दौर कुछ अलग था जब लड़कियों को घर बैठे काम चल जाता था। अच्छे रिश्ते मिल जाते थे। अब तो लड़कियों को समय के
साथ चलना जरूरी है। इसके लिए घर से और शहर से भी बाहर निकालना ही होगा...तो सुरक्षा? फिर वही सवाल...हैरानी इस बात की है कि
लड़कियों को बचाने के आंदोलन चलाने वाले संगठन,नारी आंदोलन के लीडर कभी दिखाई नहीं देते इनकी रक्षा
के लिए। लड़कियों को छेड़ने वाले लड़कों के खिलाफ कभी खड़े नहीं होते ऐसे संगठन। इनको शर्म तो अब भी
नहीं आती। कांता सिंह लगा है ऐसे लड़कों से
निपटने के लिए। किन्तु लड़की और नारी की रक्षा,उनको बचाने की बड़ी बड़ी बात करने वाला। बड़ी बड़ी रैली
निकालने वाला। बड़े बड़े आयोजन कर लड़की के महत्व को समझने वाला कोई संगठन कांता सिंह
के साथ खड़ा नहीं हुआ। किसी ने ये नहीं कहा...कांता सिंह हम तुम्हारे
साथ है। कोई तो आए और ये कहे कांता सिंह तुम प्रशंसा के पात्र हो। इन संगठनों ने तो क्या
आना था कुछ लड़के विरोध में जरूर आ गए। फिर ऐसे नारी वादी संगठनों का क्या मतलब।
एनजीओ किस काम की। केवल प्रचार के लिए।सम्मानित होने के वास्ते। यूं तो लड़की बचाओ
की बात करते है और जब कोई लड़कियों को बुरी नजरों से बचा रहा है तो ये आँख,कान,मुंह बंद किए हुए हैं। शर्म की बात है....जिस कांता सिंह का काम नहीं
है वह लगा है और जो सारा दिन “लड़की
बचाओ””कन्या भ्रूण हत्या बंद करो” चिल्लाते हैं वे चुप है। खामोश हैं। मौन धारण
किए हैं। फिर ऐसे संगठन किस काम के। काहे के नारी बचाने के आंदोलन। क्या बेटी
इसलिए बचाएं कि लड़के उनको छेड़े। जलील करें। अपमानित करें। कन्या भ्रूण हत्या
रोकें....ताकि लड़की पैदा हो.....बड़ी हो और फिर लड़कों के
भद्दे कमेन्ट को सुन कर प्रताड़ित हों। शायद नारीवादी संगठनों को पता लग गया होगा
कि कन्या भ्रूण हत्या क्यों होती थी.....किसी जमाने में लड़की के पैदा होते ही उसे क्यों मार
दिया जाता था। क्योंकि हर रोज मरने से अच्छा है एक बार मरना। अब भी चेतो मौका है।
कांता सिंह है। उसके पास हौसला है। काम करने का जुनून है। बस उसे अच्छे काम के लिए
साथ चाहिए। कुछ ऐसा होना चाहिए ताकि लड़कियों की राह में कोई रोड़ा ना हो...॥ वरना तो फिर शहर में
बिगड़ैल लड़कों का ही राज होगा। वे लड़के भी हमारे ही हैं। बस किसी कारण से बिगड़ गए।
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