श्रीगंगानगर- एक बेटी को बेटा कहने पर एतराज है। कहती है, बेटी को बेटी ही मानो ताकि बेटी का महत्व बेटी के ही रूप में हो बेटे
के रूप में नहीं। वह इस बात को मजबूती से उठाती है। लेख लिखती है। एक बेटी को
फेसबुक के बारे में टोका टाकी करो तो वह मुंह फुला लेती है। आईडी ब्लॉक करने की “धमकी” दे माता-पिता को इमोशनल ब्लेकमेल करती है। समाज में बदलाव का युग है।
खुलेपन का जमाना है। नारी को बहुत आगे ले जाना है। उसे सब कुछ करने की छूट
हो। कोई समझाइस
की जरूरत नहीं। वह सब जानती और समझती है। टोका टाकी और बात बात पर खिच खिच करने
वाले माँ-बाप और भाई बहिन के मन से उतर
जाने का आशंका! नारियों को गरिमा से रहने की बात करने वाले को जूते खाने की नौबत आ
जाती है। हर किसी में हौड़ मची है नारी की स्वतन्त्रता की। लड़कियों को लड़कों के
बराबर रखने की। खुले पन की। जिस पर लगातार इतनी हाय तौबा मची रहती है आखिर वह क्या? क्या लड़कियों को देर रात तक अपने किसी दोस्त
के साथ कहीं भी जाने देना ही खुलापन है! कुछ भी करने की छूट ही नारी को आगे बढ़ाती है!लड़की को आधे अधूरे कपड़े पहने देखना ही आजादी है! हर
कोई जानता है की आज कोई भी परिवार लड़की
को घर में बंद नहीं रखता। उसको बढ़िया से बढ़िया,अपनी हैसियत से अधिक शिक्षा दिलाता है। बड़े बड़े शहरों
में भेजता है। बड़ी बड़ी कंपनी में जॉब की आजादी है। देश- विदेश कहीं भी अकेले वह
आती जाती है। घर की हर वह सुविधा उसको उपलब्ध है जो दूसरे मेंबर्स को। नारी को आगे
बढ़ने के बराबरी के अवसर हैं। उसको अपनी मर्जी से अपनी राह चुनने की आजादी है। इससे भी आगे इंटर कास्ट लव मैरिज। दशकों पहले ऐसी बात पर भी हँगामा हो जाता था। परिवार के दूसरे लड़के लड़कियों के रिश्तों में परेशानी आती थी। अब यह लगभग सामान्य बात है। लेकिन इसके बावजूद अगर किसी परिवार को ये पता लग जाए
कि उसकी लड़की किसी लड़के से मिलती है, कोई चक्कर है तो वह टेंशन में आ जाता है। स्कूल से कोई शिकायत आ जाए तो
माता-पिता का स्कूल स्टाफ से आँख मिलना मुश्किल जो जाता है। यह इसलिए नहीं कि वो
नारी के दुश्मन है। यह इसलिए क्योंकि वे अपनी लड़की की बदनामी से डरते हैं। वे
उसे अपने से अधिक प्यार करते हैं। चाहते हैं। उसके बढ़ते कदमों के साथ उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाए रखना ही उनकी कामना होती है। बस ऐसे परिवारों को नारी का दुश्मन समझ लिया
जाता है। सार्वजनिक रूप से बेशक कोई ये कहकर बल्ले बल्ले हो सकता है कि
ये उसे अपनी लड़की के किसी भी समय
किसी के साथ कहीं पर जाने पर कोई एतराज नहीं किन्तु सच्चाई इसके विपरीत होती है। संभव
है कुछ महानगरों के कुछ परिवारों में ऐसा किसी कारण विशेष से होता हो। परंतु सच
यही है कि लड़की के भटकने का डर सभी को लगता है और इसी कारण वह बस एहतियात रखता है। उसे
बेड़ियों में नहीं जकड़ता। इस एहतियात का
सब अपनी अपनी सोच के मुताबिक व्याख्या करते हैं। अर्थ निकालते हैं। समय,काल,परिस्थिति के मुताबिक भाषण देते हैं। अपने आप को नारी स्वतन्त्रता का बहुत
बड़ा लंबरदार साबित करने के लिए ऐसी बात कहते हैं। कोई अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देता है तो
इसमें बुराई क्या है। नंगा बदन,
लड़की को कहीं भी,किसी कभी समय
किसी के साथ जाने,चुम्मा चाँटी
करने की छूट ही नारी स्वतन्त्रता है तो ऐसे आजादी को अपनी तो जय राम जी की।
कोई बुरा माने या भला।
हर इन्सान हर पल किसी ना किसी उधेड़बुन में रहता है। सफलता के लिए कई प्रकार के ताने बुनता है। इसी तरह उसकी जिन्दगी पूरी हो जाती हैं। उसके पास अपने लिए वक्त ही नहीं । बस अपने लिए थोड़ा सा समय निकाल लो और जिंदगी को केवल अपने और अपने लिए ही जीओ।
Wednesday 30 January, 2013
Monday 28 January, 2013
सुनो गौरी! आइंदा मेरे सपने में मत आना
श्रीगंगानगर-तू सपने
में क्या आई,मन के शांत समंदर
में जैसे तूफान आ गया। बवंडर उठने लगे दिल के हर कोने में। अलमारी में एक साइड में पड़ी धूल में लिपटी पुरानी किताब के पन्ने अपने
आप ही खुलने लगे। उसमें लिखा हर एक शब्द
याद आ गया। वैसे का वैसे जैसा हम दोनों ने
लिखा था, अपने मन को कलम बनाकर प्यार की स्याही से। हर एक शब्द केवल शब्द नहीं चित्र हैं तेरी-मेरी प्रीत के,मिलन के । किताब पूरी कैसे होती मुझ अकेले से। ठीक है तेरे मेरी बात तो एक है। सोच भी वही है लेकिन शब्दों को मिलकर लिखने
में जो जान आती वह मुझ अकेले से ना होता। ये तुझे खुश करने के लिए नहीं कह रहा कि तू हर पल ख्याल में रही। यादों में बसी रही।
दिल मेरे साथ साथ तेरे लिए भी उतना ही धड़कता था। सपने में झलक भी दिखती रही। किन्तु आज तो जैसे
इस नींद ने गज़ब कर दिया। अच्छा, ये तो बता, तुझे ये पता कैसे लगा कि आज कल मैं बहुत अकेला
अकेला रहता हूं, जो तू चली आई.....ये रात जैसे पूनम की रात बन गई। चाँदनी की
शीतलता ने तेरे प्यार की मधुरता को और बढ़ा दिया। .....फिर तेरा आना वैसा नहीं था जैसे पहले था। तू जल्दी में नहीं थी। घबराहट भी नहीं दिखी। आज तो प्रीत से
लबरेज था तेरा हर अंदाज। तू बेपरवाह थी इस
संसार से। ऐसा इससे पहले तो कभी नहीं
हुआ। शब्दों में,आँखों में दिल
में,चाल में दीवानगी थी। तुझे देखते ही मेरी बाहें खुद ही खुल गईं तुझे अपने अंदर समाहित कर लेने को
और देखो, तुमने भी एक पल नहीं लगाया, बाहों में चली आई ...तेरा मुझ से लिपट जाना जैसे किसी मासूम बच्चे का सुरक्षित बाहों में समा जाना... दिलों का मिलना कैसे
होता है पहली बार तूने और मैंने महसूस किया। हम तो चुप थे। बस देख रहे थे एक दूसरे के चेहरे को हाथ में लेकर...निहार रहे थे एक दूजे
को। बात! सालों बाद मिले तब भी भूल गए कि कितनी ही बातें थी करनी वाली, जो कभी अधूरी रह गई थी...यही सोचते थे कि इस बार मिले तो बात पूरी करेंगे...लेकिन इस मिलन के दौरान फिर सब कुछ भूल गए।
याद रहा तो केवल इतना की देख लें एक दूसरे
को। शायद ये सपना फिर कभी आए ही ना। हम तो आलिंगन में बस मुस्कुराते रहे....दिल कुछ अधिक तेज थे....रूह अधिक चंचल थी।
वो मौका क्यों चूकती!...दिल ही दिल से बात करते रहे...तेरी मेरी आँखों
ने एक दूसरे से क्या बात की, तू
भी जानती है और मैं भी। शब्दों की जरूरत ही नहीं पड़ी....मन के भाव...आँखों की चमक...दिल की धड़कन....हाथों में हाथ ने जैसे
वो सब बात कर ली जो सालों से करना चाहते थे। लेकिन कभी ऐसा मिलन हुआ ही नहीं था। कभी मौका मिला भी तो मर्यादा ने हर कदम
को रोका होगा...टोका होगा....रुसवाई का डर होगा....चर्चा का भय होगा। मन को मारा होगा। दूर
दूर से एक दूसरे को निहारा होगा। बेशक तुम निर्मल हो....तुम्हारे भाव निर्मल
हैं.....प्यार का अहसास निर्मल है....पर तुम फिर से मेरे सपने में मत
आना....अब तूफानों को सहन करने की पहले जितनी हिम्मत नहीं है। बिखरा बिखरा ठीक
हूं...फिर से जुड़ना नहीं चाहता....जुडने का मतलब है फिर कभी टूटना....जब टूटना ही है तो फिर
टूटा हुआ तो हूं ही...इसलिए तुम फिर किसी राह में
ना मिलना ...इस बार मिलेंगे तो
वहां जहां फिर कभी मिलने और जुदा होने का रिवाज नहीं होता। ठीक।
Thursday 24 January, 2013
पैसे से ही होती है रिश्तों में रिश्ते की खनक
श्रीगंगानगर-सही है
की पैसा भगवान नहीं है। किन्तु इसमें भी शायद ही किसी को शक हो कि आज के दौर में पैसा भगवान से कम भी
नहीं है। पैसे हो तो रिश्तों की खनक भी जोरदार होती है। वरना ना तो उनमें आवाज
होती है और ना किसी को ये कहने,बताने को जी करता है कि वो जो है, मेरा ये लगता है। पैसों के भगवान जैसा बन जाने की वजह से रिश्तों की गरमाहट अब पहले जैसी
नहीं रही। रिश्ता भाई का हो या बहिन का सब पर थोड़ा अधिक पानी पड़ ही रहा है। रिश्तों
को अपनाने,उसे अपना बताने का बस
अब एक ही पैमाना रह गया है और वो है पैसा। जी, बिलकुल पैसा। जेब गरम है तो रिश्ते भी गरमाहट देंगे। वरना
रिश्ता बस नाम का रिश्ता रहेगा, रिश्तेदारी की लिस्ट
पूरी करने के लिए और कुछ भी नहीं। कुछ दिन पहले
की बात है किसी मित्र के साथ था। रात लगभग
साढ़े नो बजे का समय होगा। फोन बजा...हैलो! फोन मालिक ने कहा। कुछ पल बात हुई।
मैंने उसकी ओर देखा। उसने बताया कि फलां रिश्तेदार का फोन था। लड़की का रिश्ता कर दिया।
कल सगाई है....कहां...कितने बजे इसकी सूचना कल देंगे। दोनों के लिए हैरानी थी।
इतनी निकट की रिश्तेदारी...और ये बात। खैर, सुबह हुई। सूचना मिलनी ही थी। मिल गई। फलां होटल....इतने बजे...पहुँच जाना। संदेश साफ था। घर नहीं आना था...होटल पहुँचना था। संबंध थे....साथ जाना पड़ा। लड़का-लड़की दोनों पैसे वाले। जिसके
साथ लेखक गया वह एक पक्ष का अग्रिम पंक्ति
का रिश्तेदार था। लेकिन आर्थिक हैसियत के मामले में उनसे 19 क्या 18 ही होगा। इसीलिए तो सीधा होटल बुलाया। वहां किसने पूछना था! रिश्तेदारी थी, बुलाना जरूरी था। और कुछ नहीं....ना किसी ने उनका परिचय
किसी रिश्तेदार से करवाया....न इसकी जरूरत महसूस की। ऐसा ही एक और था...दूसरे पक्ष की ओर से। वह
रिश्तेदार नहीं परिवार का सदस्य था।उसकी भी यही स्थिति थी। ना तीन में ना तेरह
में। जिसको पता था उसको तो पता था कि ये “लड़का”-“लड़की” का क्या लगता है! इसके अलावा कुछ नहीं। बस गिनती करने के लिए
साथ लाना पड़ा। करता भी क्या वह! कहां जाता! बेचारा इधर उधर अपना समय पास करता रहा।
कई घंटे के फंक्शन में उससे शायद ही कोई किसी बात के लिए बोला हो। सलाह तो बहुत
बड़ी बात है। ये कोई कल्पना नहीं। सच्ची घटना है। इसी समाज की और इसी शहर की। आने
वाला समय शायद इससे भी दो कदम आगे होगा। अब दिखावे के लिए कमजोर रिश्तेदार,परिवार को बुला तो लेते हैं। संभव है भविष्य
में कोई जिक्र भी करना उचित ना समझे। यही
कहेंगे....छोड़ो! बाद में बता देंगे। क्या फर्क पड़ता है। बदलते सामाजिक परिवेश को निकट से देखने का मौका मिलता
है तो भाव शब्द बन ही जाते हैं।
Thursday 10 January, 2013
Monday 7 January, 2013
पढ़ाई की तो हो गई छुट्टी........
श्रीगंगानगर-पढ़ाई की छुट्टी। जी,
बिलकुल छुट्टी। प्रशासन और किसी मामले में संवेदनशील हो या ना हो ठंड में छुट्टी
करने में बहुत अधिक संवेदनशीलता दिखाता है। वजह भी है और मजबूरी भी। वजह ! लोग
मांग करते हैं। मजबूरी ये कि ठंड में किसी बच्चे के कुछ हो गया तो मुश्किल। खिलाने
की वाह वाही मिले ना मिले खिलाते खिलाते बच्चा रो पड़े तो उसका इल्जाम जरूर लग जाता
है। 24 दिसंबर से स्कूलों में छुट्टी है। जब स्कूल खुलेंगे तब तीन सप्ताह हो चुके
होंगे। अधिक गर्मी तो छुट्टी।अधिक सर्दी तो छुट्टी। तीज
त्योहार की छुट्टी। कभी किसी सामाजिक मुद्दे के कारण हड़ताल की छुट्टी। कभी एचएम
पावर की छुट्टी तो कभी कलेक्टर पावर की। कभी टीचर नहीं आया। तो कभी बच्चों का मूड
नहीं था पढ़ने को। कभी कोई मर गया शोक में छुट्टी। बस,
छुट्टी का बहाना चाहिए। छुट्टी की कोई कमी नहीं। तैयार हैं सब के सब छुट्टी के
लिए। किसी के पास यह सोचने के लिए समय ही नहीं कि जब छुट्टी ही रहेगी तो पढ़ाई कब
होगी?
स्लेबस कौन पूरा करवाएगा?
बच्चों की नींव कैसे मजबूत होगी? उनका ज्ञान
कैसे बढ़ेगा? वे
आगे कैसे बढ़ेंगे? सॉरी!
इन सब बातों से ना तो प्रशासन को कोई मतलब है और ना सामाजिक संगठनों को अभिभावकों
को। आठवीं तक फेल तो वैसे ही किसी को नहीं कर सकते। चाहे कापी खाली छोड़ दो। टीचर
की सिरदर्दी है उस बालक को पास करने की। जब आठवीं तक के सभी बच्चों को पास ही करना
है तो फिर स्कूल लगे या ना क्या अंतर पड़ता है। इसलिए छुट्टी ही ठीक है। इस प्रकार
की ठंड में ये क्या गारंटी है कि छुट्टी और नहीं बढ़ेगी। स्कूल में जब तक पढ़ाई शुरू
होगी तब बोर्ड की परीक्षा का समय निकट आने लगेगा। फिर स्लेबस पूरा करवाने की
भागमभाग। स्कूल नहीं तो ट्यूशन। इसमें कोई शक नहीं कि इस ठंड अधिक है। लेकिन ये तो
इस मौसम में होनी ही है। हर बार कोई ना कोई रिकॉर्ड टूटता है। जब हर बार ऐसा होता
है तो फिर क्यों ना छुट्टी का सालाना टाइमटेबल ही बदल दिया जाए। क्या जरूरत है डेढ़
माह के ग्रीष्मकालीन अवकाश की। बड़े दिनों की छुट्टियों की। दशकों पहले जब इन
छुट्टियों का सिलसिला शुरू हुआ तब से आज तक काफी कुछ परिवर्तित हो चुका है। उस समय
वे छुट्टी सभी के अनुकूल थी। आज के समय ये नहीं भी हैं तो इनको बदलने में क्या
हर्ज है। कोई जरूरी तो नहीं कि एक लकीर को सदियों तक पीटा जाता रहे। आखिर स्कूलों
में पढ़ाई ही नहीं होगी तो फिर इनका मतलब क्या? सब घर रहें। एक पेपर सरकार ले और आठवीं की डिग्री दे
दे। काम नक्की। और क्या तो। ना उम्र की सीमा। ना समय का बंधन। ना स्कूल लगाने का
झंझट और ना छुट्टियों की टेंशन। क्यों, ठीक
है ना!
Tuesday 1 January, 2013
नया कलेंडर अहसास है नए साल का
श्रीगंगानगर--आओ मन
बहलाएं, बदल कर एक कलेंडर नया
साल मनाएं । कलेंडर के अलावा आज क्या बदला है? कुछ भी तो नहीं। हजारों घरों में तो कलेंडर भी नहीं बदला होगा। देश- दुनिया
के साथ हम अपनी कल वाली सोच लिए वैसे ही तो हैं जैसे कल थे। संभव है बहुत से लोग इसको
नकारात्मक कह कर नजर फेर लें। इसके बावजूद दो और दो का जोड़ चार ही होगा तीन या पांच नहीं
। सच्चाई यही है कि कलेंडर ही बदला जाता है। हम और कुछ बदलना चाहते ही नहीं। डेट,वार,दिन रात का छोटा बड़ा होना,गर्मी,सर्दी,बरसात,पतझड़,आंधी,तूफान के आने जाने ,उनका अहसास करवाने के लिए
प्रकृति कलेंडर बदलने का इंतजार नहीं करती। वह यह सब पल पल ,क्षण क्षण करती ही रहती है। ऐसा तब से हो रहा है जब
कलेंडर बदलने का रिवाज आया भी नहीं होगा। जिस नए का अनुभव हमें आज हो रहा है वह नया तो होता ही रहता है।
किन्तु हम इसको तभी मन की आँख से देख पाते हैं जब कलेंडर बदलते हैं। जिन घरों में कलेंडर नहीं बदले
जाते वहां भी प्रकृति के वही रंग रूप होते हैं जैसे अन्य स्थानों पर। जहाँ कलेंडर बदले
जाते हैं संभव है वहां भौतिक साधनों से प्रकृति के असली रंग रूप को अपनी पसंद के अनुरूप ढाल लिया जाता हो। सृष्टी
का सृजन करने वाली उस अदृश्य शक्ति के पास तो बहुत कुछ नया है। वह तो इस नए पन से रूबरू भी
करवाता रहता है। हम खुद इसे ना तो देखना चाहते हैं ना मिलना। जो नयापन वह शक्ति ,प्रकृति हम हर रोज प्रदान करती है उसको महसूस हम
तब करते हैं जब पुराना कलेंडर उतारते हैं। नया कलेंडर ही अहसास है नए साल का। यह अहसास होता
नहीं तो करवाया जाता है उनके द्वारा जिनके लिए यह एक बाज़ार के अलावा कुछ नहीं। ये
भावनाओं का बाज़ार इस प्रकार से सजाते हैं कि आँखोंऔर दिल को नया ही नया लगता है। बहुत बड़ा बाज़ार हर उत्सव,वार और त्योहार की तरह। ऐसा बाज़ार जहाँ गंजे
भी कंघी खरीदने को अपने आप को रोक ना सकें।एक कवि की इन पंक्तियों के साथ बात को विराम दूंगा--रेगिस्तानों से
रिश्ता है बारिश से भी यारी है,हर
मौसम में अपनी थोड़ी थोड़ी हिस्सेदारी है। अब बैंगलोर से विनोद सिंगल का भेजा एस एम एस
--बड़ी सुखी सी जिन्दगी जदों पानी दे वांग चल्दे सी,
हुण नित तूफान उठदे ने जदों दे समन्दर हो
गए।
मेरी पुस्तक “सत्यमेव जयते ...सॉरी रोंग नंबर लग गया” में प्रकाशित
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